विशेष

विशेष ;

आलेख :

डा.लाल रत्नाकर की कलाकृति
प्रो. ईश्वरी प्रसाद

दिल्ली की कला गैलरी की रफतार को देखकर ऐसा लगता है कि समाज में कलाकृतियों के प्रति लोगों का आकर्षण तेजी से बढ़ रहा है दिल्ली में न केवल चि़त्रशालाओं की संख्या बढ़ी है बल्कि इनकी व्यस्तता और दर्शकोंकी संख्या भी बढ़ी है। यह स्पष्ट मालूम पड़ता है कि कलाकार और समाज को एक मंच पर लाने का सबसे आसान और उपयोगी भूमिका दिल्ली की चित्रशालाएं निभा रही हैं। यही वह स्थान है जहां चित्रकार, दर्शक, समीक्षक और ग्राहक एक दूसरे के संम्पर्क में आते हैं और अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। इन्हीं चित्रशालाओं में इन दिनों रविन्द्र भवन कला संग्रहालय में डा.लाल रत्नाकर के चित्रों की प्रदर्शनी चल रही है जिसका आकर्षण दूसरे चित्रशालाओं से भिन्न है। 
चित्रकला के मानदण्ड
अपने भावों को दूसरों तक पहुंचाने के तरीकों में चि़त्रकला का विशेष स्थान है। संदर्भ वाहन मूलतः शब्दों या दृष्टि के माध्यम से होता है। चित्रकारी आंखों के माध्यम से दिमाग में संदेश देता है। भाषा जहां उपयुक्त शब्दों बराबर हमें आकर्षित करती है, चित्रकला लकीरों औरा रंगों का सहारा लेकर देखने वालों की इंन्द्रियों को संगीत की भाति आनंद देती है। आंखों द्वारा देखे गये भाव आवाज से अधिक प्रभावकारी होते हैं। आवाज धीमा धीमा होता है। आंखें सूचना ग्रहण करने में काफी तेज होती हैं। अतः दिमाग द्वारा सूचना ग्रहण करने का सबसे बेहतरीन माध्यम हमारी आंखें हैं। यि एक सच्चाई प्रतीत होता है कि तेजी से बदलते दुनियां के घटनाक्रमों को कलाकार के सिवा कौन आंखों में समाहित कर सकता है। यहीं कारण है कि कलाकार की भूमिका काफी महत्तवपूर्ण समझी जाती है।

       कल्पना और श्रृजनात्मकता से युक्त किसी भी कारीगरी के काम को कला कहां जाता है। मानवीय जीनव में आदिकाल से कलाकृति अभिव्यक्ति का एक शक्तिशाली साधन है। किसी कलाकृति को देख कर आंखें एक ही बार में उन सारे संर्दभों को आत्मसात कर लेती है, जो कलाकार के अंदर छिपे होते हैं।  कला के कई स्वरूप हैं। जब चित्रों के माध्यम से भावों की अभिव्यक्ति की जाती है, ता उसे चित्रकला कहते हैं। चित्रकारी का सृजन तीन तत्वों के सम्मेलन से होता है, समतलधरातल, रेखाएं लकीर और रंग। लकीरों के माध्यम से कलाकार अपने भावों को आकृति प्रदान करता हैं । उन्हीं आकृतियों में रंगों के सामंजस्य से जान लाई जाती है। रंगों के सामंजस्य में ही कलाकार के हाथ की जादुगीरी छीपी होती  है । आधुनिक चित्रकारी में रंगों की परम्परागत पहचान समाप्त ही हो गई है । रंगों के सहारे कलाकार विभिन्न भावनाओं को चित्रों में रेखांकित करता है । साथ ही प्रतीकों के माध्यम से वह दर्शकों की कल्पना को एक दिशा देता है । जब चित्र दर्शकों के दिलों को  स्थापित करने में सफल हो जाता है, उसे कला का दर्जा मिल जाता है । अतः लकीरों की बारीकी  रंगां का सामंजस्य और सटीक प्रतीकों का चयन ही साधारण चित्रकारी की कला को दर्जा में दाखिला देता है ।
   चित्रकारी के माध्यम ये अपनी भावनाओं को दूसरों तक पहुंचाने का काम बहुत कठीन होता है । कारण है कि जीवन अविरल प्रवाह के समान है । यह कभी भी और कहीं भी रूकता नहीं है । लेकिन चित्रकार अपने चित्र में सिर्फ एक क्षण की घटना को ही पकड कर संजो सकता है । उसी क्षण के मारफत  उसे जीवन के खास पक्ष को समग्रता में अभिव्यक्त करना होता है। यदि सही क्षण का चुनाव नहीं हुआ तो कलाकार अपने लक्ष्य को नहीं पा सकता है। उसी प्रकार चित्र में अंकित मूर्ति को भी जीवन के उस पक्ष का प्रतिनिधित्व करना चाहिए वरना भावों की अभिव्यक्ति नहीं होगी। सही प्रतीकों का होना जरूरी है। ये सारी प्रक्रिया काफी जटिल है। इसके बावजूद चित्र को मनमोहक होना चाहिए वरना दर्शकों की आंखे रूकेंगी नहीं। सब मिलाकर चित्रकला का सृजन काफी दुरूह काम है।
कला सृजन के पीछे कलाकार के लक्ष्य होते हैं। कला के माध्यम से कलाकार जीवन में सौन्दर्य की खोज करता है। सौन्दर्य का एक स्तर व्यक्तिगत आनन्द की अनूभूति से है। जब कलाकृति रसात्मक होती है तो इसका सीधा असर हमारी इन्द्रियों पर पड़ता है। चित्र को देखकर जब दर्शकों में सौन्दर्य बोध होता है तो उसे कला की उपलब्धि मानी जाती है। यह सौन्दर्यबोध और उससे उपजा आनन्द की अनुभूति किसी सुन्दर दृश्य को देखकर हो सकती है। मनुष्य के सुन्दर स्वरूप का रेखांकन, प्रकृति के सुन्दर छवि का अवलोकन तथा आनन्ददायक भावों का चित्रण दर्शकों में आकर्षण और आनन्द पैदा करते हैं। ऐसी कलाकृति अक्सर स्वांतः सुखाय के लिये होती है।

      सौन्दर्य का एक दूसरा स्तर भी है । इसमें सुंदरता की खोज वस्तुओं और छटाओं  में नहीं होती । यह सौदर्य समाज व्यवस्था के स्वरूप में ढुंढा जाता है । कलाकार सौदर्य की खोज वैसी सामाजिक व्यवस्था में करता है, ओ समाज में रहने वाले लोगों को सुखमय जीवन दिलाते हैं। इस सामाजिक सौदर्य के उद्देश्य की पूर्ति के लिए कलाकार चित्रकारी के विभिन्न तत्वों को सुव्यस्थित और क्रमबद्ध ढग से सजाता है। अपने विवके से कलाकार तय करता है, कि उसे अभिव्यक्ति को किस रूप में प्रस्ुतत किया जाय। ताकि वह सामाजिक जीवन में खास पक्ष को प्रदर्शित करते हुए लोगों में अपने प्रति आकर्षण पैदा कर सके। वह पीटी पिटाई तकनीक से हटता भी है। उदाहरण स्वरूप जार्ज रोनाल्ड एक वैश्या का चित्रण करता है। इस लिए वह सुंदर आकृति वाली युवती को रेखांकित नहीं करता। वह उसके शारीरिक और आध्यात्मिक गिरावट से उसे दर्शाता है। यह चित्र श्रेष्ठ कलाकृति में गीना जाता है। जब कलाकार की यह तमन्ना होती है ि कवह समाज में आ रही विकृतियों को समाप्त कर नये समाज की स्थापना करें तो वह उप बुराईयों को चित्र के मारपफत दरसाता है, ताकि लोगों में एक नहीं चेतना पैदा हो सके।  ऐसे कलाकार चित्रों के माध्यम से एक सामाजिक क्रांत्रि को लक्ष्य अपने दिलों में संजोता है।  इन कलाकारों का लक्ष्य समाज का नव निर्माण होता है। इन चि,ों द्वारा भी सौन्दर्य की ही खोज है, जो सुव्यवस्थित समाज के रूप में सामने आता है।  इन चि़त्रों में श्रृजात्मकता होती है और ये कला की श्रेणी  में आते हैं। इनमें कला का लक्ष्य समाज को गढ्मड से निकालकर अच्छी व्यवस्था का निर्माण है।

   चित्रकार की कलात्मकता का मूल्यांकन उसके चित्रों के मारफत होती है, जो घर ,म्यूजियम और गैलरी में टंगे होते है। कलाकार के प्रतिमा को कई मानदण्ड हैं।  अच्छे कलाकार की पहचान है कि  वह अपने चित्रों के माध्यम से अपने गांवों को दर्शकों तक पहुंचाने में सफल होता है। अपनी तूलिका से कलाकार यदि दर्शकों के दिलों को झकझोर सकता है और चित्र में अंकित संदेशों को दर्शकों तक पहुंचा सकता है तो वह अच्छी श्रेणी का कलाकार है। लेकिन चित्र में चुंम्बकीय शक्ति तभी पैदा होती है जब कलाकृति है जब कलाकृति सौन्दर्यबोध के लिहाजन संतोषजनक है।
       सफल कलाकार की दूसरी पहचान है कि वह दर्शकों में नये अनुभवों का बोध कराने की क्षमता रखता है। कलाकार चित्रों में अपने घनीभूत भावों को अंकित करता है क्योंकि जीवन ठहरने वाला नहीं है। भावों का घनीभूत होना इसपर निर्भर करता है कि कलाकृति में अनावश्यक बातें नहीं हैं। वह प्रतीकों के माध्यम से ही गागर में सागर भरता है। कुशल कलाकार विखरे अनुभवों को संकेतों के मारफत सम्पूर्णता में प्रस्तुत करता है। यदि कलाकार दर्शकों की कल्पना को वहां तक ले जाने में सफल होता है जहां चित्रकार के आह्वान स्पष्ट सुनाई पड़ते हैं तो वह प्रतिभावान कलाकार है।
        कलाकार की तीसरी कसोटी है अच्छा कलाकार अपनी कला कृति मैं चिर नवीनता के गुणों का समावेश करता है सुंदरता की खोज में वह रंगो रेखा और संकेतो का ऐसा संगम तैयार करता है की चित्र को जितनी बार देखा जाए उतनी बार नवीन मालूम पड़ता है इन सारे गुणों से लैस चित्रकारी कला के अच्छे स्तर में आती है

डॉ.लाल रत्नाकर के चित्र संग्रह

ललित कला अकादमी की गैलरी में लगे डॉ. लाल रत्नाकर के 50 चित्रों को एक साथ देखने पर कई बातें सामने आती हैं। सबसे पहले यह स्पष्ट मालूम पड़ता है कि यह स्वांतः सुखाय के लिए नहीं बनाए गए हैं। स्वांतः सुखाय वाले चित्रों में अक्सर जीवन को असंबद्ध विचारों की अभिव्यक्ति होती है। रत्नाकर के चित्रों में लुभावने प्रकृति की छटा सुंदर स्त्री तथा मनमोहक प्रसंगों के दर्शन नहीं होते हैं कलाकार को इसीलिए व्यक्तिवादी भी नहीं कह सकते क्योंकि ओवैसी कलाकृतियां सामाजिक लक्ष्यों को परिधि से बाहर होती हैं और इनका कोई संदर्भ नहीं होता व्यक्तिवादी कलाकार अक्सर जीवन की कुरूप अदाओं से टकराने में उनसे पहले पलायन कर जाता है वह जीवन के कोलाहल से दूर रहकर निर्गुण सौंदर्य की खोज में लग जाता है और अपनी अलग दुनिया बसा लेता है।
डॉ लाल रत्नाकर के चित्र संदेश वाहक हैं यह जीवन अनुभव की उपज मालूम पड़ते हैं कलाकार अपने जीवन लक्ष्य को लोगों तक पहुंचाना चाहता है रेखाओं रंगों और प्रतीकों का चयन भी उसने किसी सामाजिक लक्ष्य को ध्यान में रखकर किया है इन चित्रों से कलाकार के दो अंतरंग भाव सामने आते हैं एक ग्रामीण परिवेश की पृष्ठभूमि और दो सामाजिक विषमता से उपजे उत्पीड़न की अभिव्यक्ति।
      रत्नाकर के चित्रों की पृष्ठभूमि ग्रामीण परिवेश को दिखाते हैं इन चित्रों में भव्य अट्टालिकाएं आधुनिक जीवन शैली और शहरी जीवन के घुटन की अभिव्यक्ति नहीं है ग्वालन में गायों से गिरी एक सामान्य महिला है प्रपंच में महिलाएं गुफ्तगू कर रही हैं जीवन यात्रा में एक पुरुष अपनी गठरी लिए एक स्त्री से जीवन यात्रा के अनुभव बता रहा है सारे चित्र ग्रामीण इलाके के हैं इन चित्रों की व्याख्या से ऐसा लगता है कि कलाकार भारतीय जीवन को ग्रामीण परिवेश की उपज मानता है शायद कलाकार गांधी की तरह यह भी मानता है कि इस देश की आत्मा गांव में निवास करती है और उसका विकास गांव से ही होकर गुजरता है कलाकार यह मानने को तैयार नहीं है कि ग्रामीण परिवेश जहां 70þ आबादी रहती है वर्तमान प्रभावशाली तथा सभ्यता के वाहक नहीं हैं जो आधुनिक सभ्यता खेती और गांव को औद्योगिक सभ्यता का मलमूत्र मानती है यह इसके विनाश में नई कल्याणकारी सभ्यता का उदय मानती है रत्नाकर का कलाकार भरसक उसी जीवन में लौटना चाहता है जहां छोटी बस्तियां हैं घरेलू जानवर तथा सादे जीवन व्यतीत करने वाले लोग रहते हो यह चित्र यह सोचने को विवश करते हैं की पश्चिमी देशों का नकल नए भारत के निर्माण का फारमूला नहीं हो सकता है ऐसा एहसास होता है कि गैलरी में लगे चित्र एक स्वर से ग्रामीण भारत की जीवन शैली याद दिला रहे हैं।
      गैलरी में लगे चित्रों से कलाकार के बेचैन मन का भी एहसास होता है डाक्टर रत्नाकर सौंदर्य को संकीर्ण दायरे में नहीं मानते हैं वरना वह प्राकृतिक छटा सुंदर महिला का चित्रण करते इसके विपरीत रत्नाकर का कलाकार सामाजिक व्यवस्था में सौंदर्य की खोज कर रहा है वह किसी बड़े सामाजिक बदलाव की तमन्ना लेकर बैठा है यही उसका सौंदर्य बोध है यह चित्र यह कह रहे हैं कि भारतीय समाज में सौंदर्य की अस्थापना तभी होगी जब समाज की वर्तमान संरचना को सांगोपांग बदला जाए जब तक भारत की सामाजिक व्यवस्था का स्वरूप मीणा रही है यह सुंदर नहीं हो सकता इसने देश को जड़ बना रखा है मीनार के निचले हिस्से में कोई शक्ति नहीं बची है क्या है यह सड़ी-गली व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह कर सके कलाकार शायद यह भी मानता है कि भारत का विदेशियों से हर युद्ध में हार खाने का तथा आजाद भारत के विकास को औरत रहने का यही कारण है इस सामाजिक व्यवस्था के रहते राष्ट्र का नवनिर्माण की कल्पना अधूरी रहेगी
भारतीय सामाजिक व्यवस्था ही रत्नाकर के चित्रों की आत्मा है इन चित्रों में देश की सामाजिक विषमता इतने रूपों और संदर्भों में आती है की कलाकार की सारी कल्पना इसी खूट से बँधी सी लगती है कलाकार का विद्रोही मन इसी को बार-बार प्रदर्शित करता है अपने रंगों और संकेतों के मार्फत समाज के इन्हीं कुरीतियों को दर्शाया गया है।
लाल रत्नाकर के चित्रों का मूल्यांकन करने से कई प्रश्न सामने आते हैं हिंदुस्तान दुनिया के प्राचीन देशों में एक पुराना देश है प्राचीन भारत भारत विद्वानों और कलाकारों अपने जीवन के अनेक क्षेत्रों में विशेषता विशिष्टता प्राप्त की है शिल्प कला और वास्तुकला मैं भारतीय कलाकार अद्वितीय रहे हैं। शिल्प कला के गौरवमई इतिहास की चर्चा करते हुए डॉक्टर लोहिया ने लिखा है दुनिया के किसी भी अन्य देश में अपनी आत्मा के इतिहास को और अपनी इतिहास की आत्मा को भारत के समान पत्थरों पर खोज कर लुभावनी सकिन नहीं पी होगी लुभावनी शक्ल नहीं दी होगी भारतीय शिल्पकारी में एक तरफ इतिहास और धर्म विषयक चिंतन में इस्मिता और दूसरी तरफ धार्मिक एवं ऐतिहासिक घटनाओं के काल्पनिक चित्रों में स्वास रोकने वाली लगभग चिरंतन सुंदरता की अनमोल विशाल दूसरे देशों के शिल्प में नहीं मिलती है
       प्रश्न है कि ऐसी प्रतिभा का प्रदर्शन चित्रकला में क्यों नहीं हुआ भारत की प्राचीन चित्रकारी अजंता है अजंता का कितना हिस्सा मौजूद है वह कला के दृष्टिकोण से अद्वितीय है लेकिन बाद के जमाने में यह समाप्त क्यों हो गया शायद प्राचीन भारत के कलाकार चित्रकला से अधिक स्थाई माध्यम पत्थरों के शिल्प कला को कई अर्थों में यह उनका अधिक उपयुक्त चुनाव था लेकिन बाद के कलाकारों ने चित्र कला के प्रति आकर्षण क्यों नहीं हुआ जिस काल में यूरोप में चित्रकला शिखर पर था और वहां उच्च कोटि के चित्रों का निर्माण हो रहा था भारत के कलाकारों ने इसके प्रति आकर्षण इनदिनों नहीं हुआ क्योंकि उसी समय भारतीय समाज अपने आंतरिक और विनाश से जूझ रहा था अपनी रूबी मनोवृति के कारण भारतीय कलाकार राष्ट्रीय जीवन की बुनियादी कमजोरियों के सामने लाने में अक्षम हो गया समसामयिक भारत में भी यह रोगी मनोवृत्ति समाप्त नहीं हुई है यहां की सामाजिक चेतना में विशेष बदलाव नहीं आया है यहां का कलाकार समाज के इस कुरूप स्वरुप या चित्रण नहीं करना चाहता है अधिकतर कलाकार प्राकृतिक सौंदर्य शहरी जीवन तथा पश्चिमी सभ्यता की झलक को अपनी कला का माध्यम बनाता है इन कलाकारों की कल्पना में सुंदर भारत की खोज ग्रामीण जीवन में जाकर नहीं हो सकता है।


अंत में
डॉ.लाल रत्नाकर ने अपने चित्रों के मार्फत राष्ट्रीय जीवन के ऐसे पहलू को उजागर किया है जिसकी जवाबदेही यहां के इतिहासकारों और समाजशास्त्रियों की है । यह एक सच्चाई है कि भारत का सामाजिक धरातल जाति प्रथा से बना है यूरोप का वर्ग व्यवस्था से यह यूरोप का इतिहास जाति व्यवस्था की पृष्ठभूमि में लिखा जाए तो वह हास्यास्पद होगा वैसे ही जाति प्रथा के रहते भारत की व्याख्या को वर्ग व्यवस्था के परिप्रेक्ष में करना गलत है । हमारे कथाकारों और विद्वानों ने इसे अभी तक या तो अज्ञानतावश या शरारतवश इसे स्वीकार नहीं किया है । लेकिन राष्ट्रीय चेतना के इस पहलू की अभिव्यक्त राष्ट्रहित में है । जब तक सामाजिक विषमता समाप्त नहीं होती भारत आगे नहीं बढ़ सकता है। रत्नाकर ने भारत के विद्वानों और कलाकारों द्वारा नजरअंदाज किए गए पहलू को अपने चित्रों की विषय वस्तु बना कर एक सामाजिक दायित्व का निर्वाह किया है । रत्नाकर के चित्र हिंदुस्तान के बूढे समाज में नव जीवन का संदेश लेकर आए हैं। यदि दर्शकों के दिलों में एक नई सामाजिक चेतना पैदा होती है तो यह कलाकार की उपलब्धि होगी । इन कलाकृतियों से उन लोगों का मनोबल बढ़ेगा जिनके जीवन में व्यवस्था परिवर्तन से बेहतर जीवन अवसर उपलब्ध होंगे। डॉ. लाल रत्नाकर का कलाकार एक समाज सुधारक है।




----------------------------------------------

धन्य हो प्रधानमंत्री जी ? 
गुजरात में तो श्मशान घाट बना ही दिया था, उत्तर प्रदेश में भी बनाने की योजना क्यों बना रहे हैं ? अरे ! आप को यूपी के बनारस ने ही सांसद बनाया है उत्तर प्रदेश ने लोकसभा में आपको 73 सीटें दी हैं ? क्या किया आपने ? कम से कम से श्मसान तो न बनाइए ?
वैसे काशी तो घाटों की नगरी ही है जिसमें अधिकांश घाट पर श्मशान घाट हैं ही ?
माननीय साथ ही आपकी नजर बड़ी तेज हैं जब आप ने बसपा को "बहिन जी संपत्ति पार्टी" बना दिया आप के स्वभाव में मुझे मसखरे वाली भाजपाई जमात की छवि तो दिखती ही थी हेरफेर की संस्कृति तो कोई आपसे सीखे ? 
हैं न धन्य है न आप .
आपके आचरण (आचरणों) का अमल छोटे-छोटे बच्चे करने लगे हैं आपकी तरह ही वह लोगों को बेवकूफ बनाते हैं ? और हाऊ हाऊ करते हैं धन्य हैं प्रधानमंत्री जी अब देश का प्रधानमंत्री बनने के लिए तौर तरीकों की जरूरत नहीं है, बल्कि आपने तो सबके लिए रास्ता खोल दिया है कितना भी कोई कैसा भी हो उसको लोग चुन ले रहे हैं, और आपके अध्यक्ष जी को तो सारा देश देख रहा है. कितना शातिर जो निरंकुश राजा, लूटेरे, आततायी की छवि से विभूषित नज़र आ रहा हो ? उसकी भी खूब पहचान बन रही है ? अब यहाँ का चरित्र उनकी राह पकड़ने वाला है ? जब इस देश में डकैत उन्मूलन का दौर मा. वी. पी. सिंह जी उ. प्र. के मुख्यमंत्री रहते चलाये थे, काश आज वह योजना चल रही होती तो इस तरह के लोग उत्तर प्रदेश में उस अभियान के तहत जरूर आ जाते ।
---------------

आदरणीय परम मित्रों !
(आपकी वाजिब और ज़रूरी राय के लिये)

जो नहीं जानते कि उर्मिलेश की जाति क्या है ? पर उन्हें उर्मिलेश की जाति जानने की ज़रूरत ही क्या है ? रही बात पत्रकारिता की तो और कितनों की जातियॉ हैं जो आपको बेचैन करती है ?
सुश्री अनुप्रिया हों, स्वामी प्रसाद मौर्य हों या अम्बिका चौधरी हो उन्हें / इन्हें इधर या उधर क्यों जाना पड़ा ? श्री बलराम यादव जी का सर्जिकल आपरेशन ?
अब आप सबको सत्ता लोलुप कहेंगे जाहिर है क्योंकि उनको यहाँ रहने ही नहीं दिया गया यहाँ तो वही बचे हैं न जो "सत्ता लोलुप नहीं हैं" किसी को भी बेदखल करके देखिये वह कितने दिन आपके साथ रहेगा ? सामाजिक न्याय या जातीय स्वाभिमान आपको कहीं रोके हुए है, हमें नाराजगी है की यादवो के नेता दूसरा कैसे हो सकता है ?
क्या हम कभी यह विचार नहीं कर सकते की वे आपको नेता क्यों मानेंगे ? यदि आप में इतना सहस नहीं है की आप उन्हें अपने साथ जोड़े रख सकें ! मैं यहाँ बहुतेरे नामों का उल्लेख नहीं करना चाहता केवल कुछ यादवों के नाम लिखता हूँ जिनमे श्री चंद्रजीत यादव (पूर्व केंद्रीय मंत्री भारत सरकार) श्री राम नरेश यादव (पूर्व मुख्यमंत्री व् राज्यपाल) श्री शरद यादव (पूर्व केंद्रीय मंत्री भारत सरकार) क्या यह इतने भी महत्त्व के नहीं हैं जो सामाजिक न्याय को दिशा नहीं दे सकते या थे ? जबकि सबसे पहले 15 % आरक्षण श्री राम नरेश यादव (पूर्व मुख्यमंत्री उ० प्र०) ने दिया उसके लिए उन्हें कितनी गालियां खानी पड़ी थीं, याद तो होगा आपको ?
आज बहुतेरे यादव माननीय मुलायम सिंह यादव के खिलाफ हैं, आख़िर क्यों ?
मुलायम सिंह यादव पर परिवारवाद का आरोप लगता है पर अखिलेश यादव तो उसी परिवारवाद की उत्तपत्ति हैं, आप यह क्यों भूलते हैं चौधरी चरण सिंह के पुत्र अजीत सिंह जी ने अपनी राजनीती के लिए जो कुछ किये अंततः "जाट" उनके साथ नहीं रहा ? बल्कि इस इलाके में जाटों ने तो भाजपा जैसी साम्प्रदायिक पार्टी का वरन कर लिया ?
अखिलेश जी उत्तर प्रदेश का जिस तरह का विकास कर रहे हैं उसमें मूलतः ब्राह्मणवादी विकास ही है जो उनको भले बड़ा करता हो पर सामजिक न्याय की अवधारणा से उसका कोई मतलब नहीं है ? केवल यादव ही नहीं है सामाजिक न्याय का हिस्सा है बल्कि सारे पिछड़े उसके हकदार हैं, उन्हें नेतृत्व का मौक़ा क्यों नहीं मिलना चाहिए ?
---------------------
Dr.Manaraj Yadav 

डॉ० रत्नाकर जी जिन यादव नेताओं का नाम आप ले रहे हैं उनमें से दो लोगों ने क्रमशः जनवादीपार्टी और समता पार्टी बनाई! लेकिन जनता ने उन्हें समर्थन नहीं दिया! इसमें मुलायम सिंह दोषी हैं या जनता ! शरद यादव को राजनीति में स्थापित करने के लिये मुलायम सिंह और लालू प्रसाद यादव ने बहुत कुछ किया लेकिन वे दोनों से अलग हो गये,नीतीश की गोद में गये और अपमानित हुये,अध्यक्ष पद से हटाये गये इसमें किसका दोष है! मैं मानता हूँ कि मुलायम और अखिलेश ब्राह्मणवादी हैं, तो क्या मायावती ब्राह्मणवादी नहीं है? क्या वे इस वाद को बढ़ावा नहीं दे रही हैं? क्या उन्होंने अकेले ब्राह्मणों को ६६/टिकट नहीं दिया है? क्या यादवों की जनसंख्या ब्राह्मणों से.चार-पांच गुना अधिक नहीं है? क्या उन्हें २३/ टिकट देना उचित है? सवर्णों को ११३/टिकटऔर लगभग ६०%आबादी वाले पिछड़ा वर्ग को १०६ टिकट देना उचित.है? किस आधार पर मायावती को बेहतर माना.जाय !अनुप्रिया पटेल, स्वामी प्रसाद मौर्य अबिका चौधरी की अब अपने नये दलों में.क्या.हैसियत है उन्हें अभी या कुछ दिनों बाद पता चल जायेगी, बसपा.से एक दर्जन से.अधिक केवल यादव नेता बेइज्जत करके निकाले गये हैं! 
सबसे पहला शिकार हुये श्री राम कृष्ण यादव हुयेजो मायावती के साथ दूसरे एम.पी लोकसभा में थे,,बसपा से! अब आप बताओ कि मायावती का.समर्थन कैसे किया जाय!

बाबाजी !
हिंदू
हिंदुत्व।
हिंदुत्ववादी
लंबे समय से देश की बड़ी आबादी हिंदू के रूप में चिन्हित होती रही है. लेकिन उसके लिए संविधान की महत्ता सर्वोपरि रही है, उसकी जीवनधारा संविधान के नैतिक और आदर्श स्वरूप के अनुसार आगे की ओर बढ़ रहे थे। और वह देश की विभिन्न विकास की धाराओं में धीरे धीरे लग रहा था साथ ही अपने अधिकारों के लिए निरंतर लड़ भी रहा था।
हिन्दुत्ववादियों ने यह बात पच नहीं पाई और उन्होंने नए सिरे से हिंदू हिंदू चिल्लाना शुरू किया और कथित हिन्दुओं को बढ़ता देख साबरा नहीं कर सका। अब हिंदू हिंदू की गुहार लगाना शुरू किया ? क्या है "हिन्दू" यही विचारणीय मामला है।
जैन, सिख, कबीरपंथी,बौद्ध,लिंगायत और भी छोटे मतावलम्बी  सब अपना अपना मत बना कर अलग-अलग रास्ता बना लिए हैं, जब लोगों में ज्ञान का प्रसार हो रहा था और ऐसा लग रहा था कि उनका लंबा सहवास हिंदू के साथ नहीं हो सकता। इसलिए वह धीरे-धीरे वहां से किनारा करना आरंभ कर रहे थे जिसमें कोई बुराई भी नहीं थी धर्म तो शांति और सुख के लिए होता है अशांति और अपमान के लिए नहीं।
राहुल गांधी ने धर्म के दोनों रूपों का खुलासा बहुत ही वैज्ञानिक तरीके से किया है। जिसको लेकर भक्तगण परेशान हो सकते हैं, लेकिन इसमें कहां कौन सी गलती है। क्या नाथूराम हिंदुत्ववादी नहीं था और हिंदुत्ववादी का काम करने का जो तरिका है उसने नहीं किया ? उसकि जो दशा हुई उसके जो कार्य रहे वह किसी से छिपे नहीं हैं।
आज की वर्तमान सरकार भी हिंदुत्ववादियों को ही बढ़ावा दे रही है, और जिन्हें हिंदू बनाए रखना चाहती है उनके सारे अधिकारों का समापन और तहस-नहस कर रही है। उसके लिए जो संविधान है उसको समाप्त करने की ओर अग्रसर है और इसके खिलाफ आवाज जोरदार तरीके खड़ी करना चाहिए, परन्तु डर से  वह अभी सो रही है। क्योंकि उसे गोबरभक्ति का नशा पिला दिया गया है नशे का जो आनंद गोबर वाले कीड़े की तरह सुख देने वाला लग रहा है।
वही कीड़ा जब गोबर से निकलेगा तब उसे पता चलेगा कि गोबर के अलावा भी दुनिया है जहां शांति प्रेम बराबरी भाईचारा सब कुछ मौजूद है लेकिन उसने अपना बहुमूल्य समय गोबरभक्ति में निकाल दिया है।
इसलिए हिंदू धर्म से निकलने की बहुत संभावनाएं हैं वह किसी को रोकता नहीं जो लोग उसमें जो नियंता हैं उसकी नीयत ठीक नहीं है। उन्होंने हिंदू के नाम पर न जाने कितने पाखंड का निर्माण कर रखा है।और वाराणसी और बद्रीनाथ में प्रधान सेवक का रूप क्या दीखता है किसे परोस रहे हैं यह सब।  
अतः राहुल गांधी के विचारों को ठीक से समझने की जरूरत है अंध भक्तों और गोबर भक्तों के दुष्प्रचार पर नहीं जाना चाहिए। जो सरकार हमारे अधिकारों को नष्ट कर चुकी हो संबिधान प्रदत्त आरक्षण, नौकरियों में शिक्षा में, न्यायपालिका में, उद्यगों और संपत्ति में। 
हिंदू कोई इस तरह की विचारधारा नहीं है कि जिसमें आप बहुत ही गौरवान्वित महसूस करें क्योंकि इसका शाब्दिक अर्थ भी अपने आप में बहुत कुछ सहेजे हुए हैं;;;;;;;;;;;;
- Dr.Lal Ratnakar

कोई टिप्पणी नहीं: