गाँव

हमारी गाँव की यादें 
डॉ.लाल रत्नाकर

यादों में बसा गाँव, साँसों में बसा गाँव
अपनों से भरा गाँव, एहसाश भरा छाँव .

उम्मीदों से भरा गाँव, गोबर से सना गाँव
मडहों से सजा गाँव, खलिहानों से भरा गाँव

पुरवट से सिंचाई, फसलों की दौरिआहि
हेंगा की सवारी, भैसों की चरवाही .

बकरी का औषधि दूध, गदहे की सौम्य पीठ
खेतों की रखवाली, घस्छोलानियों की चिरौरी

गन्नों से सजे खेत, गदराये हुए खेत
ताजे अनाजों से सुबहा ही भरे पेट

बागों की छैयां में, गोंदी हो मैया की
खटिया हो भैया की, भौजी का आक्रोश

चूल्हे की पकी रोटी, कितनी ही ओ मोटी
माँ की कछरी की, ललछौं लिए दही की

चूनी की रोटी की, चोटे की फजीहत की
गुड की मारामारी, जलेबी की खरीददारी

नदिया में नहाने की, हर खेल में हार जाने की
घर में मार खाने की, बाबूजी के सामने आने की

भैसों को नहलाने की, नदी में डूब जाने की
पेड़ों पे चढ़ जाने की, कई बार गिरने की

बहुत याद आती है गुजरे हुए जमाने की
अब गाँव न जा पाने की और शहरी न हो पाने की


यादों में बसा गाँव, साँसों में बसा गाँव
अपनों से भरा गाँव, एहसाश भरा छाँव .

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हे गाँव तुम्हारी बदहाली का .......

डॉ.लाल रत्नाकर

हे गाँव तुम्हारी बदहाली का
क्या क्या दर्ज करूं  ?

प्रकृति प्रदत्त संसाधनों का
या सरकारी बंदोबस्त !

सड़कें, बिजली, पानी का
या स्वास्थ्य जनित इंतजामों का

झोला छाप डाक्टरों का
या लम्पट नेतागिरी का

जन्म मृत्यु के पहरेदारों
या सरकारी हिस्सेदारी का

नात-बात या अपनों का
किसकी बात करूं

जिनको देखो वही सुखी हैं
या सुख का नाटक करते हैं

अपने अपने छाँट छाँट कर
सम्बन्ध जताते हैं

भाई बंदी गुजर गयी है
किसी जमाने में

अब जो नयी संस्कृति आयी
गाँवोँ  की हिस्सेदारी में

आयातीत है, देशी है,या
परदेश से आयी है !

सरकारी है या उधार की
करमचारिणी विचारी है

स्कूलों में, हस्पतालों में
उसकी जो कारगुजारी है

अच्छे अच्छे गुजर जा रहे
इनके  इंतजामों से

ये विकास के सरकारी नाटक
दर्ज करूं ! या ....

माँ बाप तो ज़िंदा हैं
पर दुःख के मारे हैं

नौजान के हाल देखकर
हलाकान संरक्षक हैं

मेहनतकश के मेहनत की
कीमत सरकारी है

मोबाइल पर खबर मिली है
वो बेहद दुखदायी है

हे गाँव तुम्हारी बदहाली का
क्या क्या दर्ज करूं  ?

गाय भैंस के गोबर का
या दूध दही की मार्केटिंग का

स्कूलों के उन्नतीकरण का
या बढ़ते पब्लिक स्कूलों का

गाँवो के उन्नतिकरण का
या शहरी होने का

भाईचारा या अपनेपन में
हिस्सेदारी का

ये लेखा इतना विकट हो गया
भाई हिस्सेदारी का

बाबूजी फिर खड़े हो गए
आखिर सबकुछ खोने पर

रोते रोते बयां कर रहे
देखो मैं तो जिन्दा हूँ

बच्ची तुम अब फिकर न करना
मैं यूँ ही खड़ा रहूँ

कौन बताये उनको अब ये
बैशाखी टूट गयी

इसी व्यवस्था ने छिनी है
जिनकी खुशियों को

आश सांत्वना दे रहे हैं
हम उसी विचारी को।


हे गाँव तुम्हारी बदहाली का
क्या क्या दर्ज करूं  ?




अखिल भारतीय कला उत्सव गाजियाबाद-2013 में बनाया गया मूर्तिशिल्प

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