डॉ. लाल रत्नाकर को विद्यार्थी जीवन से जानता हूं इनके स्वभाव व इनकी कला को बहुत करीब से देखा समझा हूं। यह जिस स्पष्टवादिता और बेबाकी के लिए जाने जाते हैं वही इनका अलंकार है ।आजकल कलाकार अपनी बात, रचना, (घटा’) नफा नुकसान और सामने वाले को देख कर रखते हैं, आवश्यकतानुसार उसमें पालिश और चापलूसी का तड़का लगाकर रखते हैं पर लाल रत्नाकर से ऐसे लोग सामना करने से बचते हैं। यदि लाल रत्नाकर की कला को देखना जानना है तो उनके विचारों उनके स्वभाव को जानिए वह जो हैं उनके विचार जो हैं वही उनकी कला है।
वह जिस परिवेश से आते हैं इसकी झलक उनकी कला में स्पष्ट दिखती है । चित्रों के विषय उनका वातावरण सब कुछ उनका अपना जिया हुआ है। वह पूर्वांचल से आते हैं वहां की मिट्टी की गंध उनके चित्रों से आती है। किसी तकनीकी बंधन में बंधे बिना उन्मुक्त स्वतंत्र भाव से अभिव्यक्त करना उनकी विशेषता है। इनकी रचनाओं में नारी स्वरूप को रिष्ट पुष्ट व मर्यादित रूप में अंकित किया गया है। यही गुण उनके रंगों और रेखाओं में मिलता है। रेखा रंगों के साथ कागज व कैनवस पर खेलना उनकी रचना प्रक्रिया का एक भाग है। रचना करते-करते रेखाओं को जिस स्वतंत्रता व प्रवाह से कैनवस पर नचा देते हैं वह देखते ही बनता है। ऐसा करने में कोई संकोच नहीं है कोई बंधन नहीं चित्र खराब होने का कोई डर नहीं। चित्र में ऐसे प्रयोग कर पाना कुछ विरले कलाकारों में ही देखने को मिलता है।
वह जिस सक्रियता से कला से जुड़े हैं उसी सक्रियता से राजनीति से भी जुड़े हैं। तत्कालीन सामाजिक कुरीतियों का मुखर रूप से विरोध करते हैं। यदि किसी की कला में यह लक्षण दिखता है तो उसे उसी तरह कंडम करते हैं चाहे वह उनका अपना प्रिय मित्र ही क्यों ना हो। यह साफगोई स्पष्टवादिता मैं लाल रत्नाकर में ही देखा।
लंबे समय तक कला अध्यापन से जुड़े रहे। यह अपने विद्यार्थियों में भी कला के इसी कठोर नियम का पालन कराते। पूरे विश्वविद्यालय में एमएमएच कॉलेज गाजियाबाद का ही एक ऐसा सेंटर था जहां परंपरावादी व तकनीकी परस्त ‘वाश’ पेंटिंग सिखाई जाती थी। एक तरफ तकनीकी विधा के अनुरूप कार्य होता था तो दूसरी तरफ स्वतंत्र क्रिएटिव जो कार्य यहां होता था अन्य किसी केन्द्र पर नहीं होता था। 4/3 के 3-3 कैनवस एक साथ रखकर उस पर रचना कराना आसान नहीं है। यहां के विद्यार्थी इस प्रयोग से स्पेस में खूब विचरण करते थे उनका चित्र धरातल 4/9 का होता था। ऐसे बड़े स्पेस के सामने खड़ा होने पर बड़े-बड़े कलाकारों के भी हाथ पैर फूल जाते हैं। विभाग की दीवारों पर विद्यार्थियों से 10-10 फीट ऊंचे जो म्यूरल बनवाए वह अनोखा है। इसी के साथ रिलीफ म्यूरल में जब यहां के विद्यार्थी कार्य करते हैं तो किसी मान्य कला महाविद्यालय की याद ताजा हो जाती। विद्यार्थियों की रचना प्रक्रिया में किसी प्रकार की छूट नहीं थी। अनुशासन पालन के साथ रचनात्मक अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान करते थे। यही कारण है कि जो विद्यार्थी यहां के इनके कलात्मक सख्त नियम का पालन करते वह टिक पाते और जो मौज-मस्ती व डिग्री मात्र के लिए आते उन्हें बीच में छोड़कर जाना पड़ जाता था। इनके समय में विभाग से बहुत सारे विद्यार्थी एक कलाकार के रूप में अपनी पहचान बनाने में सफल रहे। ऐसे ही विद्यार्थियों में मनोज बालियान, नेहा शबनम आदि प्रमुख हैं।
जब लाल रत्नाकर विभाग में टेबल पर बैठे होते अथवा किसी से बातें कर रहे होते तो उस समय वह बात करते-करते अपनी रचना करते रहते। सामने पड़े पेपर पर इंक से ड्राइंग करते व उसमें कभी कभी रंग भर देते एक रेखाचित्र को दूसरे से जोड़कर जो नया संयोजन बनाते वह इनकी रचनाओं में विशिष्ट है। इनकी इन रेखाओं में गजब का प्रवाह है। यह मन के भाव के साथ स्वतः बहती रूप लेती चली जाती है। आवश्यकतानुसार इसमें जो कहीं-कहीं पारदर्शी रंग भरा गया है वह रेखा चित्र को एक पेंटिंग का रूप प्रदान कर देता है। रत्नाकर जी के ये रेखा संयोजन बहुत ही सशक्त व कलात्मक मापदंडों के अनुरूप हैं। आत्मअभिव्यक्ति के साथ इनमें गजब का आत्मविश्वास झलकता है।
वैसे तो रत्नाकर जी विभिन्न माध्यमों में काम करते हैं जैसे जलरंग तैलरंग एक्रेलिक, वुड, स्टोन आदि। सर पर गमछा बांधकर जब बड़े-बड़े पत्थरों को ग्राइंडर से काटते हैं तो स्टोन डस्ट का गुबार उठ जाता। ऐसे मैं वहां खड़ा होना भी मुश्किल हो जाता पर वह उसी धुंध में अपनी रचना को रूप देते रहते। ऐसे में वह एक परिपक्व मूर्तिकार लगते हैं। मूर्ति रचना में वेस्ट को स्टोन से काटकर निकाल फेंकना होता है और एक चित्र में आकार में रंग भरकर रूप देना होता है। दो अलग-अलग विधाओं को एक साथ निभा पाना कम लोगों में देखने को मिलता है।
डॉ. लाल रत्नाकर ने गाजियाबाद में प्रशासन के सहयोग से अनेक राष्ट्र स्तरीय चित्र व मूर्तिकला शिविर का आयोजन किया, जिसमें देश के जाने-माने चित्रकार व मूर्ति शिल्पियों ने भाग लिया। खुले में इस आयोजन में एक मेले जैसा वातावरण बन जाता। कविनगर में कलाधाम की स्थापना हुई जहां कला कार्यशाला चित्र मूर्ति प्रदर्शनी रंगमंच का प्रदर्शन एक साथ हो सकता है। यहां बनी बड़ी-बड़ी मूर्तियां आज गाजियाबाद के प्रमुख चौराहों और पार्कों की शोभा बढ़ा रही हैं। एक व्यक्ति ने गाजियाबाद जैसे नगर में जो कलात्मक हलचल पैदा की वह वर्षों वर्षों तक लाल रत्नाकर के कलात्मक योगदान को याद दिलाता रहेगा।
डॉ. राम शब्द सिंह
पूर्व अध्यक्ष चित्रकला विभाग
जेवी जैन कॉलेज सहारनपुर
(चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय मेरठ से संबंद्ध)
9456294829
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डॉ. रत्नाकर की कला-यात्रा
डॉ. रत्नाकर की कला-यात्रा महानगरीय सभ्यता में ग्रामीण संस्कृति की स्थापना की यात्रा है। विशेष रूप से ग्रामीण स्त्रियों की मनःस्थिति एवं मनोभावों को कैनवस पर उतारते हुए रत्नाकर जी ने चित्रकला की दुनिया में अपनी एक विशेष पहचान बनाई है। यह स्त्री-जीवन उनकी चित्रकला में निरंतर न केवल उपस्थित रहा है बल्कि गतिशील भी बना रहा है। वर्ष 1740 में बसे और 1976 में ज़िला बन जाने के बाद से ग़ाज़ियाबाद ने औद्योगिक विकास के साथ-साथ स्वयं को कंक्रीट के महानगर में तब्दील कर लिया है। लेकिन इस महानगर को सांस्कृतिक संस्पर्श देने का महत्वपूर्ण कार्य डॉ. लाल रत्नाकर की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। चाहे वह ’कला भवन’ की स्थापना हो और चाहे उसमें मूर्तिकारों के राष्ट्रीय स्तर की कार्यशालाओं के आयोजन हों, उन्होंने ग़ाज़ियाबाद को कला की दुनिया में हमेशा ऊॅंचा स्थान दिलाने का प्रयास किया है। ऐसी कार्यशालाओं से निकले हुए दर्जनों मूर्ति-शिल्प आज ग़ाज़ियाबाद के चौराहों एवं महत्वपूर्ण सार्वजनिक स्थलों पर स्थापित हैं और शहर की कलात्मक अभिरुचि का प्रतीक बने हुए हैं।
डॉ. लाल रत्नाकर एक बहुआयामी कलाकार हैं। उन्होंने चित्रों के साथ-साथ रेखांकनों, मूर्ति-शिल्पों तथा दूसरे माध्यमों पर भी काम किया है। अपने रेखांकनों के माध्यम से उन्होंने ग़ाज़ियाबाद ही नहीं, देश के कितने ही रचनाकारों की साहित्यिक कृतियों के पृष्ठ सजाए हैं। इसी प्रकार हिंदी और दूसरी भाषाओं की साहित्यिक पुस्तकों के मुख पृष्ठों को अपनी तरह का कलात्मक स्वरूप और संस्पर्श प्रदान करने में उन्होंने बहुत उदारता से अपना योगदान दिया है।
एम.एम.एच कॉलेज, ग़ाज़ियाबाद में फाइन आर्ट के रीडर के रूप में डॉ.रत्नाकर ने नई पीढ़ी को कला की दुनिया में आगे बढ़ाने का भी दायित्वपूर्ण योगदान दिया है। वे ग़ाज़ियाबाद में कला के अकेले ऐसे प्रतिनिधि हैं जिन्हें अलग-अलग माध्यमों से पूरे देश में और देश की सीमाओं से बाहर भी जाना जाता है। उनकी कला का विस्तार धीरे-धीरे उनके सुपुत्र कुमार संतोश में भी हुआ है।
कहना न होगा कि आने वाले समय में उनकी कला निरंतर नए क्षितिजों को स्पर्श करने की संभावनाओं से ओत-प्रोत दिखाई देती है!
शुभकामनाओं सहित!
- कमलेश भट्ट कमल
’गोविंदम्’
1512, कारनेशन-2 गौड़ सौंदर्यम अपार्टमेंट
ग्रेटर नोएडा वेस्ट गौतम बुद्ध नगर (उत्तर प्रदेश)
पिन कोड-201 318, मोबाइल-9968296694 ; kamlesh59@gmail-com
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डॉ.लाल रत्नाकर चित्रकार होने के साथ-साथ राजनीतिक सामाजिक सरोकारों से प्रतिबद्ध व्यक्तित्व है।
विगत कई दशकों में भारतीय आधुनिक चित्रकला कई बदलावों के सहारे आज अमूर्त स्वरूप को ग्रहण करते नजर आती है ,जहां पर कला में भाव- उद्दीपन की क्षमता कम और कौशल के दांव-पेंच ज्यादा नजर आते हैं। ऐसे में यदि कोई कलाकार अपने राजनीतिक प्रतिबद्धता और सामाजिक सरोकारों के चलते मानवता व सामाजिक बराबरी को अपने चित्र कर्म का मुख्य ध्येय बना ले, तो मानो आज के परिवेश में कोई प्रेमचंद रंगों के मनोविज्ञान के सहारे सर्वहारा वर्ग की सामाजिक समानता के लिए नई इबारत लिख रहा हो ।हमारे समय महत्वपूर्ण चित्रकार अपर्णा कौर एक जगह लिखती हैं कि “प्रेमचंद ने जिस तरह अपने साहित्य में गांव को स्थापित किया है वही काम कला की दुनिया में उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद से आने वाले चित्रकार एवं सामाजिक समरसता के पैरोकार डॉक्टर लाल रत्नाकर अपनी पेंटिंग के माध्यम से कर रहे हैं।“
चित्रकार होने के साथ-साथ डॉ.लाल रत्नाकर राजनीतिक सामाजिक सरोकारों से प्रतिबद्ध व्यक्तित्व है। वैचारिक स्तर पर वह समाज में सर्वहारा के हितों के साथ-साथ स्त्रियों की समानता के भी पक्षधर रहे हैं। इनके चित्रों में यही प्रतिबद्धता और सामाजिक दायित्वों का निर्वहन होता दिखाई देता है। समाज की आधी एवं महत्वपूर्ण आबादी जिसे स्त्री कहते हैं इनके चित्रों की केंद्रीय चेतना है। डॉ रत्नाकर ने अपने चित्रों में आधी आबादी के मर्म को बड़ी संवेदना और रंगों के मनोविज्ञान के साथ भावगम्य अभिव्यक्ति दी है । डॉ रत्नाकर के चित्रों में नारी आकृतियां अमृता शेरगिल एवं बी प्रभा की तरह एलॉन्गेट होकर चटक रंगों के साथ कैनवास की भूमि पर अवतरित होती है।आज भी देशज भाव बोध का यह चितेरा आधुनिक चित्र तकनीकों के साथ अपनी सृजनात्मकता को अभिव्यक्ति प्रदान कर अपने देशजभाव भूमि को अपनी सृजन की नमी से लगातार खींच रहा है।
वर्तमान कला परिवेश में आधुनिकता के साथ-साथ देशज भावों की अभिव्यंजना इनके चित्रों की महत्वपूर्ण पहचान बन गई है। जैसे किसी मेट्रो शहर के सीमेंट और कंक्रीट के जंगल में उनके चित्रों की प्रदर्शनी का होना गांव की माटी की सोंधी गंध को फैला देती है। माटी की यही सोंधी गंध उनके चित्रों का प्रभाव दर्शक के मन मस्तिष्क पर खेतों से आती शीतल व सुगंधित बयार का आनंद देती है ।चित्रों में ग्रामीण सहजता ,सरलता, चटख रंगों व रेखाओं की तरलता में बेहद आकर्षक ढंग से अभिव्यक्त होती है। इनके चित्रों की रेखाओं की लय रूपविन्यास को सहज और भावगम्य में बना देती है। डॉक्टर लाल रत्नाकर के चित्रों में रंग अपनी पूरी चमक व प्रखरता के साथ कैनवास पर उतरते है।
से. रा. यात्री (साहित्यकार)ने इनकी कला यात्रा पर टिप्पणी करते हुए यह पंक्तियां कही है-
“धूसर प्रांतर के अंचल में,
रंगो, रेखाओं का विधान।
अक्षितिज सृष्टि के विविध रूप,
इनके चित्रों में दृश्य मान।।“
इस तरह डॉ. लाल रत्नाकर आधुनिक कला जगत में अपनी अनूठी पहचान बना रहे हैं, और माटी की यही सोंधी गंध इनके चित्रों कितने आयामों में, किस तरह से अभिव्यक्त होगी यह देखना रुचि कर रहेगा।
- महावीर वर्मा
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डॉ. लाल रत्नाकर : ग्राम्य जीवन की झाँकी को प्रस्तुत करता एक चितेरा चित्रकार
‘‘जीवन का अनुभव संसार मेरे लिए, मेरी कला के लिए संजीवनी जीवन के जिस पहलू को मैं अपनी कला में पिरोने का प्रयास करता हूँ, दरअसल वही संसार मेरी कला में उपस्थित रहता है. कला की रचना प्रक्रिया की अपनी सुविधाएं और असुविधाएं हैं, जिससे जीवन और कला का सामंजस्य बैठाने के प्रयास में गतिरोध आवश्यक हिस्सा बनता रहता है. यदि यह कहें कि लोक और उन्नत समाज में कला दृष्टि की भिन्न धारा है तो मुझे लगता है, मेरी कला उनके मध्य सेतु का काम कर सकती है।‘‘
भारत में चित्रकला की विधा अत्यंत प्राचीन है। उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी में राजा रवि वर्मा, रविन्द्र नाथ ठाकुर, अवनीन्द्र नाथ ठाकुर, नंद लाल बोस, जैमिनी राय, अमृता शेरगिल, एस.एच. रजा, एफ. एफ. हुसैन, तैयव मेहता, सतीश गुजरान, मनजीत बाबा, जतिन दास जैसे विख्यात चित्रकारों ने परम्परा को आगे बढ़ाया।
वर्तमान समय के चित्रकारों में कई चित्रकारों ने इस परम्परा को और भी समृद्ध किया है। इस क्रम में डा० लाल रत्नाकर एक महŸवपूर्ण नाम है। वे वर्तमान समय के महत्वपूर्ण चित्रकारों में से एक हैं। वे अपने समय के एक ऐसे चितेरे चित्रकार हैं जिनके चित्रों से ग्राम्य जीवन की सोंधी गंध आती है। उनके चित्रों से लोक जीवन के वास्तविक रंग उभरते हैं। सर्वाधिक महŸवपूर्ण तथ्य यह है कि उनके चित्रों में भव्यता, अलंकरण व काल्पनिकता की जगह आम जनजीवन व जीवन के विरोधाभास का अत्यन्त प्रभावी रूप से प्रकट होते हैं।
डॉ0 रत्नाकर के चित्रों में काल्पनिक तथा लुभावने प्रकृति की छटा, सुंदर स्त्री तथा मनमोहक प्रसंगों के दर्शन नहीं होते। उनके चित्र उस जीवन अनुभव के प्रतीक प्रतीत होते हैं जिसे चित्रकार ने स्वयं भोगा है। वे अपने भोगे हुए व देखे हुए सच को प्रभावी ढंग से व्यक्त करते हैं। उनके चित्र प्रथम दृष्टया स्वानुभूति का रेखांकन ही लगते हैं। उनके चित्रों के रंग व प्रतीकों में भी सामाजिक जीवन व लोक भावनाओं का प्रकटीकरण होता है।
डॉ लाल रत्नाकर के चित्र निश्चित रूप से जीवन अनुभव की उपज मालूम पड़ते हैं। डॉ0 रत्नाकर वास्तविक जिन्दगी के रेखांकन को लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं। रेखाओं, रंगों और प्रतीकों का सटीक चयन करते हुए डॉ0 रत्नाकर अपने चित्रों में वास्तविक ग्राम्य पृष्ठभूमि व ग्राम्य जीवन को चित्रित करते हैं। यदि उनके चित्रों को बहुत गौर से देखा जाए तो डॉ0 रत्नाकर के चित्रों से दो अंतरंग भाव सामने आते हैं एक ग्रामीण परिवेश की पृष्ठभूमि और दो सामाजिक विषमता से उपजे उत्पीड़न की अभिव्यक्ति।
जैसा मैंने उल्लिखित किया है कि डॉ0 रत्नाकर के चित्रों की पृष्ठभूमि ग्रामीण परिवेश की है। इन चित्रों में भव्य अट्टालिकाएं, आधुनिक जीवन शैली और नगरीय जीवन-दर्षन की अभिव्यक्ति नहीं है। उनके चित्रों में खेत है, फसल है, गाय-बैल है, बैलगाड़ी है, सूप है, गायों से घिरी सामान्य महिलाएं हैं, प्रपंच में बतियाती महिलाएं हैं, जीवन यात्रा में रत स्त्री-पुरुष युग्म है, और इसके साथ ही न जाने कितनी सच्ची अभिव्यक्तियाँ हैं। उनके सारे चित्र ग्रामीण इलाके के हैं, इन चित्रों की व्याख्या से ऐसा लगता है कि कलाकार भारतीय जीवन को ग्रामीण परिवेश की उपज मानता है। वह यह मानता है कि इस देश की आत्मा गांव में निवास करती है और उसका विकास गांव से ही होकर गुजरता है। डॉ0 रत्नाकर के चित्रों में उस जीवन का वर्णन है जहां छोटी-छोटी बस्तियां हैं, घरेलू जानवर तथा सादे जीवन व्यतीत करने वाले लोग हैं, ये चित्र ग्राम्य जीवन के विषय में सोचने पर विवश करते हैं।
डाक्टर रत्नाकर के चित्रों का सौंदर्य संकीर्ण नहीं है। ऐसा भी हो सकता था कि डॉ0 रत्नाकर प्राकृतिक छटा सुंदर महिला का चित्रण करते किन्तु वे इसके विपरीत उनका कलाकार मन सामाजिक व्यवस्था में सौंदर्य की खोज कर रहा है। वर्तमान सामाजिक व्यवस्था को चित्रित करते हुए वे किसी बड़े सामाजिक बदलाव की तमन्ना लेकर बैठे हैं, यही उनका सौंदर्य बोध है। उनके चित्र यह कहते हुए नजर आते हैं कि भारतीय समाज में सौंदर्य की स्थापना तभी हो सकेगी जब समाज की वर्तमान संरचना आमूलचूल परिवर्तन किया जाए।
डॉ. लाल रत्नाकर ने अपने चित्रों के माध्यम से राष्ट्रीय जीवन के वास्तविक पहलू को उजागर किया है। यह एक सच्चाई है कि भारत का सामाजिक धरातल नाना प्रकार की विषमताओं से भरा पड़ा है। इन विषमताओं के दर्षन उनके चित्रों में स्पष्ट रूप से प्रदर्षित होते हैं। उनके चित्र यह कहते हैं कि जब तक सामाजिक विषमता समाप्त नहीं होती भारत आगे नहीं बढ़ सकता है। डॉ0 रत्नाकर ने भारत के विद्वानों और कलाकारों द्वारा नजर अंदाज किए गए पहलू को अपने चित्रों की विषय वस्तु बना कर एक सामाजिक दायित्व का निर्वाह किया है। डॉ0 रत्नाकर के चित्र हिंदुस्तान के विषमांगतायुक्त समाज में नव परिवर्तन का संदेश देते हैं।
उनके चित्रों के पात्र अक्सर ग्रामीण परिवेश में पुरातन परिपाटी के साथ-साथ नवोन्मेषी भाव भंगिमा में नज़र आते हैं। उनके चित्र पुराने इतिहास की पृष्ठभूमि में वर्तमान परिस्थितियों को रूपायित करने के लिए एक सेतु का काम करते हैं। डॉ. लाल रत्नाकर ऐसे कलाकार हैं जिन्होंने भारतीय ग्रामीण जीवन विषमतापूर्ण जीवन शैली को अपने चित्रों के ज़रिए जीवंत किए हैं।
लगातार सक्रिय रहने वाले डॉ0 रत्नाकर लॉकडाउन के दौरान भी अपनी कला के माध्यम से सक्रिय रहे हैं। इस संक्रांतिकाल में भी उनकी सृजनशीलता मोथरी नहीं पड़ी।
डॉ0 लाल रत्नाकर न केवल एक चित्रकार हैं बल्कि एक कुशल वक्ता, लोक कला मर्मज्ञ व उत्कृष्ट विचारक भी हैं। उन्होंने पत्थर के कोल्हू में उत्कीर्णित लोक कला पर शोध किया है। बनारस व उनके आसपास के इलाकों में प्राप्त होने वाले पत्थर के खुदाई, रस्सी कोल्हू, पुरानी दीवारें, असवारी और मटके के चित्र, मिसिराइन के भिन्ति चित्र, और दीवारों आदि विषयों पर व्यापक अध्ययन किया है।
महत्वपूर्ण बात यह है कि डॉ0 रत्नाकार के चित्रों के केन्द्र बिन्दु स्त्रियाँ हैं। उनके चित्रों में रंग अत्याधिक गहरे हैं। डॉ0 रत्नाकार की स्त्रियाँ मूल रंगों का वरण करती हैं। पीला, नीला, लाल उनके प्राथमिक रंग हैं। इसके अतिरिक्त उनके चित्रों में हरा, बैगनी और नारंगी इनके जीवन में उपस्थित होता है। इसके सिवा उसके जीवन में जो रंग दिखाई देते हैं, वह सीधे सीधे कुछ अलग ही संदेश संप्रेषित करते हैं। इन रंगो में प्रमुख हैं काला और सफेद जिनके अपने अलग ही पारम्परिक सन्दर्भ हैं। इन रंगो के साथ उसका सहज जुड़ाव उसे प्रकृति और सत्य के समीप रखता है। उत्सवी एवं पारम्परिक मान्यताएं भी इन चटख रंगो को अंगीकृत करते हैं। वे स्वयं भी ऐसा ही मानते हैं उनकी स्त्रियाँ सीता नहीं हैं कृष्ण की राधा नहीं है और न ही रानी लक्ष्मीबाई हैं, ये स्त्रियाँ खेतों खलिहानों में अपने पुरूषों के साथ काम करने वाली जिन्हे वे अपना राम और कृष्ण समझती हैं। लक्ष्मीबाई जैसी नहीं हैं लेकिन अपनी आत्मरक्षा कर लेती हैं। डॉ0 रत्नाकर की कई कृतियां पुस्तक प्रकाशकों की पहली पसन्द में रही हैं। न जाने कितनी साहित्यिक कृतियों के आवरण पृष्ठों पर उनकी कृतियां शोभा बढ़ा रही हैं। चित्रकार ही नहीं बल्कि एक समर्थ कलाकार, शिल्पी के रूप में भी उनकी क्षमता को गाजियाबाद जैसे शहर में जाकर महसूस किया जा सकता है जहाँ सड़कों के किनारे उनकी कृतियां और स्कल्पचर किसी को भी दिखाई पड़ जाते हैं।
अपने ठेठ देशी अंदाज में जीने वाले और उसी तरह सोचने वाले इस कलाकार को इसलिए भी ज्यादा जाना चाहिए कि वास्तविक जिन्दगी को कैनवास पर उसी ठसक के साथ उकेरना आज की आवश्यकता भी है और कलात्मक अपरिहार्यता भी। डॉ0 लाल रत्नाकर को साधुवाद की वे अपना कलात्मक, रचनात्मक और सृजनात्मक सफर यूँ ही बरकरार रखें।
-पवन कुमार
(लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ अधिकारी हैं तथा वर्तमान में विशेष सचिव, भाषा विभाग, उ0प्र0 शासन के पद पर कार्यरत हैं।)
सम्पर्क - 9412290079
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किसी भी कला की खूबी यह होती है कि देखने वाला उससे अपना जुडाव महसूस करे और वह यथार्थ के करीब हो। डॉ. लाल रत्नाकर जी ने जितनी खूबसूरती से ग्राम्य जीवन और आधी आबादी को चित्रित किया है, वह अद्वितीय और अद्भुत है। उनके चित्र इतने जीवंत और अर्थवान हैं कि गाँव देहात से जुड़े लोग उन चित्रों में खुद को या अपने पुरखों को देखते हैं।
डॉ रत्नाकर जी ज़मीन से जुड़े होने के कारण ग्राम्य-जीवन तथा आधी आबादी की दिनचर्या से पूरी तरह वाकिफ हैं । इसलिए उनके चित्र यथार्थ को प्रदर्शित करते हैं । उनकी पूरी कला साधना ग्रामीण नारी की ही परिक्रमा करती प्रतीत होती है । उनके चित्रों में कहीं गृह कार्य में व्यस्त गृहणियाँ नजर आती हैं तो कहीं पानी लाती पनिहारन । किसी चित्र में ढोल बजाकर उत्सव मनाती महिलाएं नज़र आती हैं तो कहीं गंभीर विमर्श करती मातृशक्ति । चटख रंगों से सजे चित्र बरबस ही ध्यान अपनी और आकर्षित करते हैं।
आपके चित्रों की एक विशेषता यह भी है कि उनकी पृष्ठभूमि में ग्राम्य जीवन की दैनिक उपयोग की वस्तुएं और खेती किसानी के उपकरण तथा पशु नज़र आते हैं। मुंशी प्रेमचंद की तरह आपने शहरों की चकाचौंध से किनारा करते हुए ग्रामीण परिवेश से ही अपने चित्रों की विषय वस्तु चुनी है।
व्यक्तिगत रूप से मैं डॉ रत्नाकर जी के चित्रों से इतना प्रभावित हूँ कि अपनी 07 मौलिक पुस्तकों के आवरण पृष्ठ इन्हीं के चित्रों से बनवाए, जो बहुत सराहे गए हैं । इतना ही नहीं उनके चित्रों से प्रेरणा ग्रहण करते हुए मैंने आधी आबादी को लेकर दो दोहा संकलनों का सम्पादन किया । पहला ‘आधी आबादी के दोहे’ जिसमें देशभर से 22 महिला दोहकारों के दोहे संकलित किये गये और दूसरा ‘दोहों में नारी’ जिसमें देश के श्रेष्ठ दोहकारों के नारी के विभिन्न रूपों पर लिखे गये दोहे संकलित किये गये । इन दोनों कृतियों के आवरण भी डॉ लाल रत्नाकर जी ने उपलब्ध करवाए जो प्रासंगिक और विषयानुकूल होने के कारण बहुत पसंद किये गए।
डॉ रत्नाकर जी, अपने दौर के श्रेष्ठ चित्रकारों में से एक हैं। आधुनिकता की दौड़ में ग्रामीण जीवन से भी जो चीजें गायब होती जा रही हैं, वे आपके चित्रों में भावी पीढ़ी देख सकेगी। इस लिहाज से आप बहुत-सी वस्तुओं के संरक्षण का कार्य भी कर रहे हैं।
बहुत बहुत शुभकामनाएं !
रघुविन्द्र यादव
प्रकृति-भवन, नीरपुर,
नारनौल (हरियाणा)-123001
9416320999
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माटी की महक और मोहकता के चित्रकार
प्रोफेसर लाल रत्नाकर आज के समय के, ग्रामीण लोक परंपरा को सहेजने वाले अग्रणीय चित्रकार हैं। वह जिस लोकसमाज को रचते-बसते हैं, वह खुद चित्रकारी कला से बेदखल है। कहा जा सकता है कि जिनके लिए कला का कैनवस सीमित है, उनके लिए रत्नाकर जी अपना कैनवस बड़ा करते हैं। उन्हें कैनवस पर उतारते और संवारते हैं। उनके कैनवस का रंग चटक और भदेस का सौन्दर्यशास्त्र है। उनकी तुलिका में पुरुषवादी समाज की सताई गंवई स्त्री की बहुलता है। उनके चित्रों की एक प्रदर्शनी, ‘नारी जाति की तरंगे’ शीर्षक से लग चुकी है, जिसमें महिलाओं की दशा-दिशा पर तैलीय एक्रोलिक, जलारंगीय (वाटर कलर) एवं रेखांकन प्रदर्शित हुए हैं। वह स्वयं कहते हैं कि, ‘मुझे नारी सृजन की सरलतम उपस्थिति के रूप में परिलक्षित होती रहती है।’ वह आगे कहते हैं कि मेरी स्त्रियां सीता नहीं, कृष्ण की राधा नहीं हैं और न ही रानी लक्ष्मीबाई हैं। ये तो खेतों, खलिहानों में अपने पुरुषों के साथ काम करने वाली हैं जिन्हें वे अपना राम और कृष्ण समझती हैं।’
रत्नाकर की स्त्री के हाथों में चूड़ियां तो हैं मगर वह हाथों का बंधन नहीं हैं। वह हाथों को सृजनशील बनातीं हैं। उनकी चूड़ियों में जो खनकार है, वह संघर्ष और जिजीविषा को प्रतिबिम्बत करती है, वह पुरुष तंत्र के नीचे दबी स्त्री को उसके मुक्ति पथ पर रंग रोगन करती आगे बढ़ रही है। रत्नाकर उस भदेस स्त्री के साथ सहचर की भूमिका में हैं। उनमें तीक्ष्णता नहीं है, स्थूलता है। वह अपनी स्त्रियों के रास्ते में उम्मीद के रंग भरते हैं। उसे अपनी चित्रकारी में शीर्ष स्थान देते हैं।
लाल रत्नाकर की चित्रकारी में उभरते जलरंग, गांव के वर्ग समूहों, संस्कृति, आधी दुनिया और उस दुनिया की निजता, नम्रता, संघर्ष, संस्कृति, पहनावे, पनघट और खेत-बारी सबको अपनी तूलिका से उकेरते हुए शहरी संस्कृति तक पहुंचाते हैं और भदेसपन से कुलीनों को सुघड़ बनाने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। कुल मिलाकर वह आज के ऐसे जरूरी चित्रकार हैं जो चित्रकला में गांव को, गांव की स्त्री को, स्त्री के सौन्दर्य, सहजता, सरलता और सत्ता को समृद्ध करते हैं। वह भदेस और सुघड़ के द्वंद्व को रचने वाले चित्रकार हैं।
रत्नाकर जी चूंकि लोकपरंपरा को सहेजने वाले चित्रकार हैं इसलिए उनके ज्यादातर चित्रों में सामूहिकता का रंगरोगन है। समूह में गांव की चौपाल है, घास काटने निकलती स्त्रियों का समूह है तो सिर पर घड़ा संभाले पनघट से लौटती सखियों का समूह है। घसिहारिनों का दल अब भी रत्नाकर की रचनाओं में स्थान पाता है। टोकरी संभालती हुई घसिहारिनें, घूंघट काढ़े समूह में गांव से बाहर निकने को उद्धत हैं।
कहीं-कहीं सांस्कृतिक परिवेश को समेटते हुए चित्रकार ने बंशी बजाते कृष्ण, ध्यानस्थ बुद्ध, कबीर आदि पर भी अपनी कूची चलायी है तो चरवाहों और उनके पशुओं से भी संवाद किया है।
रत्नाकर की चित्रकारी में पेड़-पौधे, जंगल और विचरते मोर हैं जिन पर उम्मीद के सूरज ने सुबह का गोला टांक दिया है। गदराई गाय ने रम्भाना शुरू कर दिया है। उसके गले की घंटी संगीत का तान छेड़े हुए है और नेपथ्य में गंवई स्त्री उसकी सेवा में रत है। कुछ चित्रों में रत्नाकर की गायों का मुख गदहे जैसा बना दिया गया जो सत्ता संचालकों द्वारा राजनैतिक विसात पर गाय को बदनाम करते हुए बदसूरत किया जा रहा है। कहीं-कहीं स्त्री के साथ उसके पालतू जानवर हैं तो कहीं पगुराती गायों के साथ बैठी गांव की महिलाएं, कालचक्र के पहिए को घुमा रही हैं। उनकी चित्रकारी में पूर्वांचल की लोककलाएं हैं और जवां स्त्री के घोड़े पर वीरांगना की तरह तन कर बैठने का चित्र है।
आवाम को अधिकारहीन किए जाने और उसके यातायात के साधनों, रेल और जहाज को बेच देने की पीड़ा से लेकर अच्छे दिनों की मरीचिका को भी रत्नाकर जी ने अपनी चित्रकारी में स्थान दिया है। वहीं द्वार पर आए पाहुन का स्वागत करती स्त्री है। उनकी कर्मठ और गठीली स्त्री में उच्छृंखलता नहीं है। प्रगतिशीलता का आवरण तो है इसके बावजूद पर्देदारी बनी हुई है। घूंघट कहीं लम्बी और आगे बढ,़ चेहरे को ढंक लेती हैं तो कहीं उनकी बहुत सी युवा स्त्रियां बिना घूंघट के भी हैं। ब्राह्मणवादी विधानों से मुक्ति की तलाश में चित्रकार लगातार अपनी तूलिका थामे आगे बढ़ रहा है। धर्म के पाखण्ड को वह भौतिक जीवन तथा चित्रकारी में नकारते चलते हैं।
रत्नाकर के चित्रों में स्त्रियों या युवतियों की चोटियां मोटी और लम्बी हैं। यह गंवई स्त्री का समुचित चित्रांकन है। यौवन और सिंगार के चित्रांकन में परिस्थितिजन्य उभारों का विशेष ख्याल रखा गया है। ज्यादातर स्त्रियां वस्त्रों से आवृत्त हैं। वह देह को बाजारू नहीं बनाते। वह शारीरिक वक्रों से परहेज करते हैं। इसलिए कहा जाता है कि उनके चित्रों में स्थूलता है। उसकी स्त्रियां और पुरुष भी वर्तमान बदलती दुनिया, दुनिया के फैशन परेड से थोड़ा पीछे चल रहे हैं। वहां बुजुर्ग पुरुषों की पगड़ियां, श्वेत धोती की, आकर-प्रकार में पुरबिया बाना में हैं। कुल मिलाकर वह गांव को अपनी कला पर सवार रखना चाहते हैं।
समसामयिक आपदा या सत्ता द्वारा प्रायोजित आपदाओं में आमजन की पीड़ा के चित्रांकन में चित्रकार ने अपनी तूलिका चलाई है। आपदा में अवसर तलाशते शासकों के चरित्र को बदरंग किया है तो मास्क में चेहरा छिपाये, कोविड काल में, लॉकडाउन के बाद शहरों से गांवों की ओर भागते लाखों मजदूरों के पलायन की वेदना को रत्नाकर जी ने गहरी संवेदना के साथ चित्रित किया है। शहरों से गांव की यात्रा में हर कोई समूह में भी अकेला है। मजदूरों के सिर पर घर-गृहस्थी की गठरी है तो पैरों में बेवाइयां। कहीं-कहीं जूते या चप्पलें नदारद हैं। चेहरे सपाट और आपदा के मारे, मटमैले रंगों से रंगे गए हैं। इन चित्रों में स्त्री पीड़ा को सघनता से उकेरा गया है तो दंगों या साम्प्रदायिक हिंसा में लहूलुहान होती मानवता का भी चित्रण, चित्रकार ने किया है। आपदा में अवसर तलाश रहे क्रूर सत्ता को बदसूरत चित्रों से रंगते हुए रत्नाकर ने अपनी जनपक्षधरता से कभी कोई समझौता नहीं किया है। आज के समय में हाशिए के समाज के चित्रकार के रूप में प्रो. लाल रत्नाकर का स्थान कैनवस पर सुरक्षित और संरक्षित है। वह बाजारूपन से दूर, अपने अतीत से संवाद करते, भीड़ से अलग, चकाचौंध से बिलग, एकलौते चित्रकार हैं जिनकी कला में हम माटी के रंग, गंध, उर्वरकता पांक को देख सकते हैं। वह मांसलता नहीं, मोहकता के चित्रकार हैं।
सुभाष चन्द्र कुशवाहा
बी 4/140, विशालखण्ड
गोमतीनगर, लखनऊ।
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