गुरुवार, 10 जुलाई 2025

आमतौर पर मेरी तस्वीरों में


आमतौर पर मेरी तस्वीरों में 
हमारे आसपास के लोग होते हैं। 
बस उन्हीं को पहचानने की
ललक मन में समाहित किए हुए 
रचता रहता हूं दिन रात! 

शायद किसी दिन,
वह भी बोल दें जो मुंह फुलाए हैं 
न जाने क्यों घबराए हैं।
पता नहीं मेरा क्या चुराऐ हैं।
आरोप हम पर लगाए हैं।

हमारा वही समाज 
हमारे चित्रों में मुखरित होता है 
जिसे आमतौर पर लोग 
पसंद नहीं करते क्योंकि 
उन्हें यह इंसान नहीं लगते।

मोनालिसा का सच! 
कितने लोग जानते हैं! 
लिओनार्दो दा विंची आजीवन
जो बात कहने की कोशिश की है। 
उसे कितने लोग समझते हैं। 

नहीं जानते जो अपनी संस्कृति 
अपने को संस्कृति पुरुष कहते हैं 
सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का 
दंश पाले हुए हैं।
और समाजवादी कहते हैं।

आईऐ आपको हम उनसे 
रूबरू कराते हैं जिन्हें हम 
अपने चित्रों में बनाते हैं। 
यह चित्र नहीं मेरा परिवार है 
रात दिन उसी परिवार को सजाते हैं।

-डॉ लाल रत्नाकर 

गुरुवार, 5 जून 2025

क्या यह शहंशाह है

 

क्या यह शहंशाह है 
आगे भी बना रहना चाहता है
इसलिए उसे संविधान 
लोकतंत्र की मर्यादा 
देश की गरिमा नहीं भाती है।
जनता की आकांक्षाओं
सैनिकों की सुरक्षा का
आमतौर पर कोई ध्यान 
नहीं रखता है।
ध्यान रहता है तो केवल -
केवल आम आदमी को 
प्रतीकों के माध्यम से 
ठगने का, वोट के लिए 
जिससे शहंशाह बना रहे हैं 
हर तरह से संविधान विरोधी 
गतिविधियों में शरीक रहे।
जो कहे वह सब मान ले। 
जो शहंशाह माने हुए हैं। 
बाकियों को जिन्होंने 
वहां भेज रखा है ।
जहां इन्हें होना चाहिए था। 
हमारे डरे हुए समाज में 
उनकी जगह जहां होनी थी 
वहां न जाना पड़े उसके लिए 
अंधभक्त बन गए हैं। 
और अंधभक्ति के व्यापार में 
धड्ड़ले से व्यापार कर रहे हैं। 
लेकिन वह भी डर रहे हैं। 
कि कल कहीं कोई शहंशाह 
बदल गया और उनकी 
जगह भी बदल जाएगी। 

- डॉ लाल रत्नाकर

बुधवार, 23 अप्रैल 2025

प्रतीकों के ताल पर,



प्रतीकों के ताल पर,
देश के मुफ्त माल पर, 
थिरक रहा है लोकतंत्र, 
संविधान के गाल पर, 
मल रहा गुलाल है,
कैसा यह कमाल है, 
सपेरे का सवाल है। 
बवाल कैसा हो रहा है, 
हाल कैसा हो रहा है, 
आवाम भी खामोश है, 
मद में मदहोश है,
नशे में भी होश है 
कहां वह बेहोश है 
भाव ताव कर रहा है 
पांव से स्वर्ण मल रहा है 
विमर्श का कहीं पता नहीं, 
आदेश ऐसा कर रहा है। 
जीत हार का गणित, 
सुदूर से वह कर रहा है,
कौन कहां मर रहा है 
कौन किससे डर रहा है 
प्रतीकों के ताल पर,
देश के मुफ्त माल पर,
कौन सवाल कर रहा है। 
कौन बवाल कर रहा है। 
आज के माहौल में।

-डॉ.लाल रत्नाकर

सोमवार, 21 अप्रैल 2025

यह मात्र कल्पना नहीं सच है

सच कितना कड़वा होता है कौन नहीं जानता !
--डॉ लाल रत्नाकर 

यह मात्र कल्पना नहीं सच है
सच कितना कड़वा होता है कौन नहीं जानता !
हजारो सालों से आदर्श और धर्म के उपदेश !
वैसे के वैसे ही बने हुए हैं और लोग भी वैसे ही !
संस्कृति के गुलाम बने हुए हैं !
राजा पंडित साहूकार धूर्त मक्कार और दलाल !
दुराचार और बलात्कार डर विद्वेष नफ़रत !
सब के सब यूँ ही बने हुए हैं नेता और समर्थक !
बात करते हैं संविधान की पर मानते नहीं !
जी यही आज़ादी का इतिहास है !
पर न्याय, सुरक्षा, स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार 
के अवसर बढ़ रहे थे, वर्ण व्यवस्था के दबाव !
घट और बढ़ रहे थे समाज बदल रहा था !
फिर 2014 आया देश फिर से आज़ाद हुआ !
नए नारे नए जुमले नए नाम नै शिक्षा निति !
रोजगार का आश्वासन, मुफ्त अन्न ! 
धर्म का मर्म बढ़ता जा रहा था समाज बटता जा रहा था !
हिन्दू मुस्लिम का बुखार चढ़ता जा रहा था !
सरकारी विभाग पूंजीपतियों के हत्थे चढ़ते जा रहे थे !
विश्वगुरु के रूप में नए अर्थशास्त्री बढ़ते जा रहे थे !
वैश्विक आपदा और देश को जुमलों से सुरक्षा !
घंटी घंटा मोमबत्ती अन्धेरा थाली का संगीत ! 

-डॉ लाल रत्नाकर 

रविवार, 20 अप्रैल 2025

बिषगुरु और विवेकशून्यता

 बिषगुरु और विवेकशून्यता 
-डॉ लाल रत्नाकर 

जब हम नज़र डालते हैं अपने अतीत पर 
पाते हैं विकास के मार्ग और मंजिल !
कोई कम और कोई ज्यादा !
शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार !
ज्ञान और विज्ञान का संस्थान !
विकास का आगाज़ अधिकारों का ख़्वाब !
आज अवरुद्ध क्यों हो गया !
प्रतीकों की मार नाच रहा मक्कार !
जुमलों की बौछार वही हो गया औजार !
भूखों की फौज अग्निवीरों का सम्मान !
उलट पलट कर रख दिया जैसे कोई शैतान !
सभी उपक्रम बेच कर कह रहा मेरा देश महान !
यह कैसा है इंसान ?
बिषगुरु जब हो जाता है कोई अंधा इंसान !
गूढ़ रहस्य है उसका जिसमें जहर घुला है !
कैसा है मेरा वर्तमान कैसा होगा भविष्य !
बिषगुरु और विवेकशून्य जब हो जाता इंसान !

- डॉ लाल रत्नाकर 

शनिवार, 19 अप्रैल 2025

असत्य की अखंड घड़ी तक

 


असत्य की अखंड घड़ी तक 
इंतजार करेंगे अपनी बारी का !
हम जानते हैं मेरी बारी आने से पहले 
वह कपाट बंद कर देगा। 
यह कैसे कह सकते हैं बताइए। 
बताना क्या है !
कोई पहली बार नहीं। 
यह तो आमतौर पर उसके कारनामे है।
कई हजार वर्षों से यही हो रहा है। 
शायद आगे भी यही होता रहेगा। 
हम लाइन में होंगे !
और कपाट बंद हो जाएंगे। 
शिक्षा के, स्वास्थ्य के, आर्थिक सुधार के,
न्याय और रक्षा के।
असत्य की अखंड घड़ी तक 
इंतजार करेंगे अपनी बारी का 
हम जानते हैं मेरी बारी आने से पहले 
वह कपाट बंद कर देगा जानकर। 
हम जानते हैं इसका उपाय।
बहुत सीधा सा है 
जिसे करना नहीं चाहता। 
जिसको हम नेता कहते हैं। 
न जाने क्यों डरता है!
 जब आम आदमी। 
नहीं डरता और उसके साथ रहता है।


-डॉ लाल रत्नाकर

मंगलवार, 15 अप्रैल 2025

जुल्म की इंतहा होती है


जुल्म की इंतहा होती है 
तानाशाह नज़र तो आये  
दो चार हाथ तो कर लेते 
उसके सामने लूटेरे खड़े हैं 
जिनसे वह वसूलता है हिम्मत 
और बदले में देता है डरावने सपने 
तानाशाह की तरह नहीं 
शुभचिंतक की तरह उन्हें 
जो भूल गए हैं राजधर्म की मर्यादा 
और राजनीती में धर्म के सहारे 
राजनीती करना चाहते है और 
करते हैं दिखावा धार्मिक होने का 
जबकि तानाशाह जानता है ?
तानाशाह का कोई धर्म नहीं होता है 
धर्म उसका हथियार होता है 
संहार के लिए धर्मभीरुओं के !
कैसे लड़ेंगे वह जो जानते ही नहीं है 
धर्म कुछ नहीं होता, होता है अधर्म !
तानाशाह का हज़ारो साल से !
जिससे वह काबिज होता है सत्ता के शीर्ष पर 
और अवाम अंधी हो जाती है जुमलों पर 
जुल्म की इंतहा होती है तानाशाह की। 

डॉ लाल रत्नाकर 


बुधवार, 26 मार्च 2025

जुल्म की एक हद होती है ?


जुल्म की एक हद होती है ?
यही जुल्मी हद पार करता रहता है ।
जुल्मी की भी एक हद होती है 
उसके जुल्म हद पार करते हैं 
उसके वही जुल्म जिसके लिए 
हद पार कर जाते हैं।
और उसका जो होता है सब जानते हैं। 
हजारों साल से जो जुर्म होता रहा है।
सीधा-साधा आदमी उसे अच्छी तरह समझ पा रहा है।
पर वह बोलता क्यों नहीं है। 
क्योंकि उसे मर्यादा में बांध दिया गया है। 
मर्यादा को किसने गढ़ा है।
उसकी परिभाषा क्या है। 
उसे कौन तय करता है।
संविधान में तो सबको बराबर का हक है। 
वह लागू क्यों नहीं हो रहा है।
मनुस्मृति की वर्ण व्यवस्था ने 
आदमी को खंड-खंड में खड़ा कर दिया है। 
संविधान बड़ा है या मनु का विधान (मनुस्मृति) बड़ा है। 
संविधान मानने वाले या संविधान बचाने वाले 
सबसे ज्यादा मनुस्मृति मानते हैं।
तभी तो वर्ण व्यवस्था मानते हैं।
वर्ण व्यवस्था में जातियों की भरमार है। 
जातियों के समीकरण से चल रही सरकार है।
क्यों मानते हो जातियां। 
आरक्षण के लिए या पुजारी बनने के लिए।
भेदभाव करने के लिए या किसी मंदिर के ट्रस्ट में रहने के लिए।
मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर जरूरी है या अस्पताल?
(2)
नदिया मैली हो गई है। 
उनकी सफाई पर बहुत सारे अभियान चलाए गए हैं। 
नदियों में शहरों का मल मूत्र लाया गया है।
उद्योगों का कचरा बहाया गया है।
प्राकृतिक तरीके से उसकी स्वच्छता को मिटाया गया है। 
कुंभ,महाकुंभ या स्नान के लिए 
सबसे पवित्र बताया गया है।
वर्ण व्यवस्था बचाने के लिए 
या संविधान मिटाने के लिए। 
विज्ञान के हिसाब से।
वह बहस भी करता है।
जो रोज अन्याय करता है। 
रोज घूस लेता है और ईमान बेचता है। 
उसका ईमान संविधान से बधा होता है।
मन मनुस्मृति में घुसा होता है
परोपकार के स्वान्ग रचता है।
परोपकार नहीं करता।
वर्ण व्यवस्था के हिसाब से आचरण करता है। 
कभी बराबर में नहीं बैठता और न बराबर में बैठाता है।

-डॉ लाल रत्नाकर 


 

कौन कहता है होली रंगों का त्यौहार है।

 


कौन कहता है
होली रंगों का त्यौहार है।
रंग तो इसलिए इस्तेमाल किए जाते हैं।
क्योंकि मन के अंदर जो जहर है।
वह इन रंगों से छुप जाए।
रंग ऐसा भी क्या जो लगे और पानी के संग बह जाए।
कौन कहता है।
दिवाली में उजाले होते हैं।
क्या बताने की जरूरत है।
कितने कारनामे लाल और काले होते हैं।
बहुत सारे पर्व हैं।
जो आम आदमी की जिंदगी में।
प्रतीक है खुशहाली के।
कारण है बदहाली के।
धर्म और रंग का बहुत गहरा संबंध है।
लाल देखकर व्यक्तित्व की असलियत छुप जाती है।
हरा देखकर नफरत फैल जाती है।
पीत की पवित्रता
और श्वेत की सत्यता 
कहां गुम हो जाती है।
जिनको कालिख लगानी चाहिए।
वह चंदन लगा लेते हैं।
अपराध करते हैं और वंदन करा लेते हैं।
कौन कहता है रंग
रंग होते हैं।
होली रंगों का त्यौहार है।

डॉ.लाल रत्नाकर 


शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2025

विश्वगुरु के शिष्य लौट रहे है

 



















विश्वगुरु 
के शिष्य लौट रहे है
आत्म निर्भर भारत में।
मगर बेड़ियां डालकर।
यहां गुजर बशर के लिए।

आईए यहां भण्डारा
चालू है,
प्रसाद में पांच किलो अन्न!
कुंभ में भी आमंत्रित हैं।
पूरी की पूरी दुनिया से।

इलाहाबाद आना था,
पर गुजरात क्यों भेज दिए।
वाह गुजरात माडल!
वाह वाह!

अभी इस्लामिक मुल्कों से 
विश्वगुरूओ‌ की वापसी होनी है।
धार्मिक आस्था और चमत्कार 
के विश्वविद्यालयों में।
नये भारत के प्रांगण में।

अब नया भारत बन रहा है, 
अमृत काल चल रहा है। 
रोजगार की क्या जरूरत है, 
संविधान 
नहीं मनुवाद चल रहा है।
बहुजनों को एनएफयस कर रहा है।

- डॉ लाल रत्नाकर

गुरुवार, 6 फ़रवरी 2025

छलावा!

 


छलावा!
स्वयं से, परिवार से,
समाज से, संस्कृति से, धर्म और
राजनीति से।
परंपरा और परिधान से, आचरण से, मन से, 
वतन से, सत्य और संविधान से ?
छलावा!

जीवन से, मृत्यु से, कर्म और अकर्म से।
आस्था से, प्रतीकों से, लोकाचार से, 
शब्दों के माध्यम से।
छलावा!

दृश्यावलोकन से, इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों से, 
न्यूज़ चैनलों से, प्रकृति की गोंद से, आसमान से।
छलावा श्मशान से!
श्रद्धालुओं से, भक्तों से, गोबर भक्तों से, 
विवेक और चिंतन से, मन:स्थिति के मंथन से।
छलावा! 

दुनियावी सत्य से, मन की नीयती से,
देश की प्रगति से। 
छलावा!

-डा.लाल रत्नाकर

बुधवार, 5 फ़रवरी 2025

प्रतीकों का पाखंड से अनंत काल से जो नाता है।

 


प्रतीकों का पाखंड से 
अनंत काल से जो नाता है।
जैसे-जैसे समाज आगे बढ़ता है 
यह षड्यंत्र और गहराता जाता है।
धर्म में, राजनीति में, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद में। 
जिनको जिनको सांस्कृतिक साम्राज्यवाद 
समझ में नहीं आता है। 
बिना प्रतीकों का अर्थ समझे।
समाज भीड़ की तरह खिंचा जाता है।
अंधविश्वास, चमत्कार और पाखंड। 
प्रतीकों से अच्छी तरह परोसा जाता है।
छापा, तिलक, कलावा बहुजन को बहुत भाता है। 
नाना प्रकार से लिख और बोलकर कबीर ने।
चिल्ला चिल्ला कर आज भी समझा रहे है। 
गोबर भक्तों को यह कहां समझ में आता है।
प्रतीकों का पाखंड से 
जो अनंत काल से नाता है।
तभी तो अपना विनाश उन्हें भाता है। 

- डॉ लाल रत्नाकर

मंगलवार, 4 फ़रवरी 2025

आस्था या अंधविश्वास ?




















आस्था या अंधविश्वास ?
उनके प्रति जिनके मन में नफरत है !
उनके प्रति जो गैर बराबरी में विश्वास करते हैं। 
उनके प्रति जो वर्ण व्यवस्था का सिद्धांत मानते हैं। 
उनके प्रति जो संविधान में आस्था नहीं रखते। 
उनके प्रति जो हमारे हक़ पर कुठाराघात करते हैं ।
या उनके प्रति जो अपनी आंखों के सामने ,
हमारे लोगों की अकाल मृत्यु पर चिंता नहीं करते।
झूठ बोलते हैं और सच छुपाते हैं ,
सही-सही संख्या नहीं बताते !
किन पर आस्था, कैसी आस्था। 
अंधविश्वास पाखंड और चमत्कार पर आस्था। 
उनके मानसिक व्यभिचार पर आस्था।
सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक 
भेदभाव पर आस्था।
कैसी आस्था !

-डॉ लाल रत्नाकर

गुरुवार, 30 जनवरी 2025

धर्म के रूप में आमजन को स्वीकार है




















 धर्म !
यह कैसा धर्म है 
जो मृत्यु को भी 
धर्म के रूप में 
आमजन को स्वीकार है 
भीड़ से भिड़ाकर
आमजन को रौंदकर 
कुचल डालता है। 
यह आपदा में अवसर है 
या अवसर की आपदा है 
यह सत्ता का व्यापार है 
व्यापार का बाजार है 
फिर धर्म कैसे 
शर्म किसको हत्या का 
कौन जिम्मेदार है 
धर्म के अत्याचार का 
हिंदू होने का प्रमाण 
बांटने का इस परम्परा से 
क्या सरोकार है। 
यह कैसा व्यापार है।
धर्म का अत्याचार है। 

-डॉ लाल रत्नाकर 

सोमवार, 20 जनवरी 2025

प्रतिघात का आघात क्या होता कभी एहसास है !




















प्रतिघात का आघात क्या
होता कभी एहसास है !
प्रतिवर्ष,प्रतिमाह, प्रतिदिन
समय का भान होता है क्या?
यदि नहीं एहसास होता है !
हो मानव के रूप में कैसे ?
समझ लें पशुवत आचरण से
आसन्न मस्तिष्क से सन्न हो।
विपन्न हो या संपन्न हो !
मनुष्य तो हो मनुष्यता कहां?
धर्म, कर्म, अधर्म या स्वधर्म !
आस्तिक, नास्तिक, विधर्मी !
कौन है किसको समझ रहे हो!
कभी गंगा में कभी गोबर में
नहा रहे हो पवित्र होने के लिए।
अपवित्र मन धुलता नहीं है !
यदि मनुष्य हो पशु नहीं!
बात करते हो हृदय की
हृदय जब है ही नहीं !
प्रतिघात का आघात क्या
होता कभी एहसास है !

- डॉ लाल रत्नाकर


वह विकास के मार्ग पर विनाश परोस रहा है ।



वह विकास के मार्ग पर
विनाश परोस रहा है ।
और हम खुश हैं कि वह
धर्म की चासनी में अधर्म
मेरे दुश्मन के लिए बो रहा है।
अधर्म को स्वधर्म बनाने वाले
धर्म को हथियार बनाने वाले
हमें तुम्हारा इंतजार है।
क्योंकि वह अधर्म पर सवार है
जिसको विकास बता रहा है।
धर्म सभी का होता है
दूसरे का धर्म विधर्मी नहीं होता,
धर्म कभी जहर नहीं बोता।
सत्ता के लिए धर्म की सवारी
वह नहीं करता जो धार्मिक है।
यह साल भी गुजर जाएगा
सवाल यूं ही खड़ा रह जाएगा
क्योंकि उसकी आंखों पर चश्मा
काले शीशे का लगा हुआ है।
उसे कुछ भी नहीं दिख रहा है।
तुम्हारा नेतृत्व तुम्हें मुबारक
क्योंकि वह डरा डरा है।
जातीय, वर्गीय, सामाजिक
मूल्यों का नीलाम होना।
जो बाजार में चढ़ा हुआ है।

- डॉ लाल रत्नाकर

सोमवार, 6 जनवरी 2025

नये वर्ष में प्रश्न पूछिए

नये वर्ष में प्रश्न पूछिए
समस्याओं के बारे में !
अपने अपने जनप्रतिनिधियों से
संविधान के बारे में
जिनके आका बोल रहे हैं
बाबा साहब के बारे में
इनको गुब्बारे पकड़ा कर
मनुस्मृति पर देश चलाने के
सवाल पर ?
जो कुछ हो रहा है, क्या वह
संविधान सम्मत है?
पिछड़ों के जनप्रतिनिधियों का
दलित सांसदों से क्या नाता है,
क्या इन सबके दिल में, मन में
संविधान से कुछ नाता है।
पूछिए जरूर पूछिए ?
अपने अपने जनप्रतिनिधियों से।
प्रश्न पूछिए कहीं देर ना हो जाए,
आपका पद भी गफलत में
सरक न जाए मनुवाद में !
वर्ण व्यवस्था में अधिकारों पर
लगा बहुत मजबूत ताला है।
बाबा साहब ने तोड़ा था,
मनुस्मृति को जला जलाकर!
प्रश्न पूछिए आका से
आगे का क्या खाका है।

- डॉ लाल रत्नाकर

रविवार, 5 जनवरी 2025

देखो उसका अभियान


देखो उसका अभिमान
देखो उसका अभियान,
लूट रहा है कैसे वह
जग का सारा संधान
बताकर उल्टा सीधा
बहला फुसलाकर सबको
सुनाकर झूठा झूठा फरमान
देखो उसका अभियान।

सफल होता जाता है
उसके खंजर को नहीं कोई
जब हाथ लगाता है।
कैसा है शैतान कैसा है फरमान
सत्य अहिंसा को नफरत से
गढ़ता जाता है, भरता जाता है
भय का वह भौकाल।
देखो उसका अभिमान।

समझ में आया,
या ना आया
भय का उसका विधान !
संविधान को धताबात कर,
हर लेता सबका ज्ञान ।
बताकर धर्म-कर्म का आख्यान।
गुना है कभी उसका ज्ञान !
चोर उचक्के गुंडे लफंगे ख़ुश हैं!
इनका हो रहा है सम्मान।

-डॉ लाल रत्नाकर 
 
(2)

यह नया दौर है
नया ठौर है,
नई पीढ़ी का
आरोहण है,
अवरोहण के
उठा लिया हथियार
जैसे रंगा सियार
बनता है होशियार!
जनता खो गई
सो गई खाकर मुफ्त आहार
समझ गया है
भैया वह तो करना अत्याचार।
शिक्षा स्वास्थ्य सब
महंगे हो गए।
दंगों के सब भेंट चढ़ गए।
धर्मो के बीच खिंची तलवार।
अभी जातियां आपस में
बांट रही हिस्सेदारी।
उसने उनका बेंच दिया है
सारा कारोबार !
तब जागेंगे, कहां भागेंगे,
जनता है लाचार।
जान गया है राज।
यह डरा हुआ समाज।


-डॉ लाल रत्नाकर

मंगलवार, 17 दिसंबर 2024

हम उन्हें याद कर रहे हैं

 

हम उन्हें याद कर रहे हैं 
जो दुनिया को समझते हैं 
हम उन्हें भी याद कर रहे हैं 
जो दुनिया को नहीं समझते 
मगर हम उन्हें याद नहीं कर रहे हैं 
जो दुनिया को अपनी तरह से समझते हैं। 
हम उन्हें भी याद नहीं कर रहे हैं। 
जो हमें कुछ भी नहीं समझते हैं। 
हम कुछ भी नहीं हैं। 
क्योंकि इन चित्रों के पीछे। 
मैंने श्रम किया है विचारों के साथ। 
मेरे विचारों को जो नहीं समझते। 
मैं उन्हें याद करना चाहता हूं। 
इसलिए नहीं कि वह मेरे मित्र हो जाए। 
केवल इसलिए की उनकी मुलाकात। 
मेरे चित्रों से हो जाए। 
पता नहीं वह आएंगे कि नहीं। 
जिन्हें मैं याद कर रहा हूं। 
मेरा विश्वास है वह भी आएंगे 
जिन्हें मैं याद नहीं कर पा रहा हूं। 


डॉ लाल रत्नाकर


यह लूट लूट नहीं है यह संस्कृति है

 

यह लूट
लूट नहीं है 
यह संस्कृति है 
यह भ्रष्टाचार 
भ्रष्टाचार नहीं है 
यह संस्कृति है। 
व्यापार की 
बाजार की 
राजनीतिक 
अत्याचार की 
यह लूट 
लूट नहीं है 
यह संस्कृति है 
व्यापार की। 
यह भ्रष्टाचार 
भ्रष्टाचार नहीं है 
यह संस्कृति है 
व्यापार की। 
यह मन की बात 
मन की बात नहीं है 
यह संस्कृति है 
मित्रता की। 
सत्ता के शीर्ष पर 
बैठकर बैठे रहने की 
संस्कृति है। 
यह लोकतंत्र 
लोकतंत्र नहीं है।
शहंशाह की 
की कारस्तानी है।
यह राजधानी 
देश की 
राजधानी नहीं है
यह अंधी जनता की
राजधानी है।


-डॉ.लाल रत्नाकर