आमतौर पर मेरी तस्वीरों में
हमारे आसपास के लोग होते हैं।
बस उन्हीं को पहचानने की
ललक मन में समाहित किए हुए
रचता रहता हूं दिन रात!
शायद किसी दिन,
वह भी बोल दें जो मुंह फुलाए हैं
न जाने क्यों घबराए हैं।
पता नहीं मेरा क्या चुराऐ हैं।
आरोप हम पर लगाए हैं।
हमारा वही समाज
हमारे चित्रों में मुखरित होता है
जिसे आमतौर पर लोग
पसंद नहीं करते क्योंकि
उन्हें यह इंसान नहीं लगते।
मोनालिसा का सच!
कितने लोग जानते हैं!
लिओनार्दो दा विंची आजीवन
जो बात कहने की कोशिश की है।
उसे कितने लोग समझते हैं।
नहीं जानते जो अपनी संस्कृति
अपने को संस्कृति पुरुष कहते हैं
सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का
दंश पाले हुए हैं।
और समाजवादी कहते हैं।
आईऐ आपको हम उनसे
रूबरू कराते हैं जिन्हें हम
अपने चित्रों में बनाते हैं।
यह चित्र नहीं मेरा परिवार है
रात दिन उसी परिवार को सजाते हैं।
-डॉ लाल रत्नाकर