गुरुवार, 9 फ़रवरी 2012

सीढियाँ

सीढियाँ 
डॉ.लाल रत्नाकर 
अब तक तो  सीढियाँ चढकर ऊपर पहुचते थे
पर वो सीढियाँ स्थिर थीं .
अब तो सीढियाँ चलती रहती हैं
हम तो उनपर केवल खड़े रहते हैं
फिर भी पहुँच जाते हैं अनचाही ऊँचाइयों तक
समाजवाद का यह नज़ारा
स्टेशनों, मालों जैसी जगहों में
स्वागत करता है .
इस समाजवाद का स्विच
किसी नेता के हाथ में नहीं
यह हाथ 'मकैनिक' का होता है.
क्या इस मकैनिक को पता है कि
इस तरह कि मशीनें 'इंसान'को पंगु
बना रही हैं ,चलने फिरने से.
सीढियाँ वैसे भी कहीं चढाने के लिए
अच्छी नहीं मानी जाती थीं
और ऑटोमेटिक सीढियाँ तो किसे कहाँ
ले जा रही उन्हें पता है
प्लेटफार्म या माल के किसी शॉप तक
जेबें खली कराने के लिए
या अपांग यात्रियों को सुबिधा से
प्लेटफार्म तक पहुचने के लिए
पर इन्हें अकसर बंद कर दिया जाता है
शायद इनकी तबियत ख़राब हो जाती है
अस्वस्थ लोगों को चढाते चढाते . 


कोई टिप्पणी नहीं: