जुल्म की इंतहा होती है
तानाशाह नज़र तो आये
दो चार हाथ तो कर लेते
उसके सामने लूटेरे खड़े हैं
जिनसे वह वसूलता है हिम्मत
और बदले में देता है डरावने सपने
तानाशाह की तरह नहीं
शुभचिंतक की तरह उन्हें
जो भूल गए हैं राजधर्म की मर्यादा
और राजनीती में धर्म के सहारे
राजनीती करना चाहते है और
करते हैं दिखावा धार्मिक होने का
जबकि तानाशाह जानता है ?
तानाशाह का कोई धर्म नहीं होता है
धर्म उसका हथियार होता है
संहार के लिए धर्मभीरुओं के !
कैसे लड़ेंगे वह जो जानते ही नहीं है
धर्म कुछ नहीं होता, होता है अधर्म !
तानाशाह का हज़ारो साल से !
जिससे वह काबिज होता है सत्ता के शीर्ष पर
और अवाम अंधी हो जाती है जुमलों पर
जुल्म की इंतहा होती है तानाशाह की।
डॉ लाल रत्नाकर
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