रविवार, 11 जनवरी 2015

'ब्रह्मा को जब व्यवस्था बदलनी पड़ी'


गन्धर्व महाविद्यालय की प्रस्तुति ;

'ब्रह्मा को जब व्यवस्था बदलनी पड़ी' 

वाह नीरव जी !
इसी को कहते हैं स्तरीयता आपने जिस तरह से 'ब्रह्मा को जब व्यवस्था बदलनी पड़ी' का उल्लेख किया तो उसमें से कवि तत्व और कवि का उत्कर्ष दोनों झांकने ही लगा उस मंच पर जहाँ डॉ कुंवर बेचैन और श्री कमलेश भटट 'कमल' हों श्री से. रा. यात्री हों और श्री सुरेश नीरव सञ्चालन कर रहे हों गांधर्व का मंच हो 'सबकुछ तो कह दिया आपने' डरा हुआ था मैं इस कवि गोष्ठी में कविता पाठ के लिए लेकिन जब 'ब्रह्मा को जब व्यवस्था बदलनी पड़ी' के सम्बोधन के साथ जब उन्होंने लक्ष्मी पति कवि के आने का आपने आवाहन किया था, तब मुझे लगा था पढ़ सकता हूँ मैं भी ।
फिर हमने भी अपनी रचनाएँ पढ़ीं कम से कम जो कापी तो नहीं थीं;मौलिक थीं !
- डॉ लाल रत्नाकर


मुझे लगता है ;

सदियों की समझबूझ ने पागल बना दिया 
साहित्य और कला को पलीता लगा दिया। 

पूंजी गढ़ने की कला ने आदमी को इतना भुला दिया 
कि कविता कला संगीत में भी वह हाथ आज़मा लिया 

कौन बताये उसे ये विधायें मन के अंतरतल से आती हैं 
लक्ष्मी जैसी देवी के स्पर्श मात्र से ही वो दूषित हो जाती हैं  

यद्यपि शब्दों का मकड़जाल रच देता है आडम्बर का रस 
तब स्पष्ट रूप से दीखता है आचार मन का निरापद रस 

कितनों ने की होगी कविता अपने ह्रदय के पवित्रपने से 
    सुनते हुए आश्चर्य होता है इनके साहित्यिक कसाईपने से  

जब हो रहा हो दिन रात गुणा भाग साहित्य में उत्कर्ष का 
तब और स्वतः हो रहा होता है साहित्य व् कला का अपकर्ष 

यही भय साले जा रहा है दिन रात इस भ्रम और संत्रास से 
कहीं कलाओं को भी निगल न ले ऐसे ही दावानल का ग्रास

इसी शहर में खड़ी हुयी है सदियों से जब कवियों की पूरी बारात 
आकर दूल्हा कवि 'दौलत की असवारी' पर काव्य रथी हो रहा सवार 

व्यवहार में सभी उसे प्रणाम कर रहे पीड़ा पाले मन ही मन में 
पर मैं उसको कैसे कर दूँ सामान्य रहित कोई शिष्टाचार 


सदियों की समझबूझ ने पागल बना दिया 
साहित्य और कला को पलीता लगा दिया। 

-डॉ लाल रत्नाकर 



      



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