चित्र ; डॉ.लाल रत्नाकर (डिजिटल) |
हवा चल रही है ।
उस हवा में आग के,
तासीर लिपटे हुए हैं !
जो हमें डराती हुई,
निकल रही है ।
यह कितना सही है
और कितना गलत।
इसका आकलन करना।
और भयभीत हो जाना।
मुस्तकिल इंसानियत के
खिलाफ एक परचम है।
जिसे फहराते हुए।
नौजवां निकल रहा है।
आग जलाते हुए।
दिल लगाते हुए।
वक्त बदल रहा है।
अरमान लुटाते हुए।
हवा चल भी रही है।
सहला भी रही है।
गर्म थपेड़ों से।
यह कैसी बयार है।
उस हवा में आग के,
तासीर लिपटे हुए हैं !
जो हमें डराती हुई,
निकल रही है ।
यह कितना सही है
और कितना गलत।
इसका आकलन करना।
और भयभीत हो जाना।
मुस्तकिल इंसानियत के
खिलाफ एक परचम है।
जिसे फहराते हुए।
नौजवां निकल रहा है।
आग जलाते हुए।
दिल लगाते हुए।
वक्त बदल रहा है।
अरमान लुटाते हुए।
हवा चल भी रही है।
सहला भी रही है।
गर्म थपेड़ों से।
यह कैसी बयार है।
-डा. लाल रत्नाकर
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