शनिवार, 1 जनवरी 2011

एक एक ग्यारह

१-१-११
डॉ.लाल रत्नाकर

आज एक एक ग्यारह 
की सुबह !
मेरे फोन की घंटी ने 
बजना शुरू किया तब 
आँख खुली .
जब फोन को देखा तो 
एक अनोखा सा 
नाम अधूरा सा पर आसानि से 
न पढ़ा जाने वाला 
आवाज भी अपरचित सी 
हकबकाया सा मैं 
समझ नहीं पा रहा था 
की यह किसकी आवाज़ है 
क्योंकि जब मैं सोया 
था तब एक एक ग्यारह
के एक या डेढ़ या दो बज 
गए रहे होंगे.
फिर देखा घडी सात के 
आगे का समय दिखा 
रही थी .
यह सब हो रहा था 
पर मैं संभवतः सो ही रहा 
था.
यह जो आवाज़ आ रही थी 
अब धीरे धीरे समझ में 
आ रही थी .
कल रात जब पुराना साल 
जा रहा था तब मैं 
भी वहीँ था पर पुराना कब 
गया या जायेगा टी बी के 
कलर चैनल की डिज़िटल वाच 
बताएगी.
क्योंकि सबकी कलाईयों से 
घडी गायब थी 
मोबाईलों की घडी ने 
यह निर्वासन कराया है 
आज 
एक एक ग्यारह को 
सुबह सुबह शायद इसीलिए
स्वसुर जी ने घंटी 
मोबायल की बजाये है 
उन्हें क्या पता मेर मोब में 
अब घंटी नहीं घुमर बजता है 
और उसी घुमर ने 
स्वसुर जी को पहचान पाने में 
इतनी देर कराया है .
एक एक ग्यारह
बहुत दिनों के बाद 
एक को इतनी बार दोहराया है .      

1 टिप्पणी:

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') ने कहा…

बहुत बढ़िया...
सादर...