शनिवार, 23 जुलाई 2011

रचनाकार

डा0 लाल रत्नाकर
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प्रख्यात मूर्तिकार पद्मश्री राम वि सुतार 
मूर्तिकला कार्यशाला - अखिल भारतीय कला उत्सव गाजियाबाद २००६                      
 का शुभारम्भ  करते हुए, संयोजक-डॉ.लाल रत्नाकर, अध्यक्ष - संतोष कुमार यादव जिलाधिकारी 
रचना की आस लिए जब
कोमल मन आगे आते हैं 
पर उनके मन की आशा को
भवुक्ता के कुटिल डंक से 
द्रोणाचरण के दुराचरण से
जब जब उन्हें डसा जाता हैं 
क्या उन्हें पता नहीं चलता है
कि क्या वे अंगूठा ही दे रहे हैं 
या रचना प्रक्रिया का आवश्यक
यन्त्र जैसे गिरवी रख रहे हैं
क्या यही उदारता का चरमोत्कर्ष
था जिसे मापने का मन्त्र का 
जाप कराने का यन्त्र रच रहे थे
रचना और धर्म रचना का 
सब कुछ करे छलावा जब 
ऐसे ही मशहूर हो गए होंगे
पर उन्हें यह ज्ञात ही नहीं
कि कपट की कला भी कला है
युद्ध की कला की तरह ही 
सिखनी पड़ती है ऐसे ही नहीं
आ जाती होगी वत्स
पर ध्याान रहे दक्षिणा तो
देनी होगी पर उफ् मत करना
इस दक्षिणा में मांगा जा 
सकता है शरीर का और
महत्व का अंग भले ही वह
सिर ही क्यों न हो.
अतः अब द्रोणाचार्य की ही 
परम्परा में चलना है तो 
आओ सीखें उनके गुण
सहजता से फसल उपजती
तो भिक्षा की आदत को 
अपने हिस्से क्यों रखते
खेती करते अपना ही क्या
औरों के लिए भी अन्न
उपजाते जमीन को नापते
बीघे और बिस्वा में एकड़
और हेक्टेअर में न कि मीटर
और किलोमीटर में फिर 
जमीर पर हमला ही क्यों करते.
साजिश करके रचना की 
रचना के निमित्त धरती पर 
अहम छोड़ उतर आते 
स्वर्ग और नर्क की कामना के 
वगैर आज हमारे रचनाकर्मी 
केवल और केवल वही होते
विडम्बना और भ्रमजालों में 
समय क्यों गंवाते 
रचना को रचनाकारों को 
फुसलाकर बहकाकर उसके 
सुकोमल मन को मारकर 
सदियों और बचपन से 
हांड तोड़ मेहनत करके 
सड़क महल और मन्दिर
औरों के लिए रचकर अपने
समय को जो काट रहे हैं 
उनकी उपलब्धि को देखो 
मुश्किलें सह सहकर भी 
वह जीवन कैसे काट रहे हैं, 
झुग्गियों में झंझावातों संग
क्या सचमुच वही
जाति धरम का नाता देकर 
सारे मुल्क को बांट रहे हैं 
यही प्रपंच सहते सहते वो
रंग भेद से क्षेत्रवाद से 
जाति जाति के विविध विभेद से
जन जन को अब बांट रहे हैं
जनता के रचने के मन को
क्या वही वैश्विकता के
बजारवादी औजारों से 
काट रहे हैं
रचना के बदले स्वरूप को
नैतिकता के षडयन्त्र चलाकर 
क्या दीमक जैसा चाट रहे हैं.
अभिशापों को छुपा के कैसे 
वक्त ये अपना काट रहे हैं
आओ चलें गुरू द्रोण के पास
यह बताने कि अब राजतंत्र
नहीं लोकतंत्र है
अब तो अंगूठा लौटा दो
जिससे रच सकूं इस लोक तंत्र
में भारतीय संस्कृति का
एक नया इतिहास।

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