शुक्रवार, 26 सितंबर 2014

प्रकृति / प्रवृत्ति


डॉ लाल रत्नाकर 
(1)
प्रकृति

मैं जब गांव में था तब सुनता था !
एक वो हैं जो प्रकृति के संरक्षण के लिए
वातावरण की खुशहाली के लिए
वृक्ष रोपते थे !
पर दूसरे वे थे जो वृक्ष को उखाड़ते थे
या उखड़वा देते थे !
जब शहर आया तो देखा यहाँ तो
वृक्ष रोपते ही नहीं हैं !
जब यहाँ इसकी सुरुआत की तो
तो सहारा मिला और वृक्ष लगते गए
पर मुझे क्या पता था !
की अब वो भी यहाँ आ गए जो
जो वृक्ष को उखाड़ते थे
या उखड़वा देते थे !
वे ऐसा क्यों करते हैं ?
जब ये सवाल मैंने किया
तो मन ने ही गुस्सा किया
क्यों उनकी सोचते हैं
उनका अपना काम है
आप अपना करिये !
ओ उखाड़ने के लिए हैं
आप रोपने के लिए !
(2)
प्रवृत्ति
पर डर और तरह का है
हम तो वट वृक्ष रोप रहे थे
वे उनपर रेड रोप रहे है
रेंड से जो तेल निकलता है
कई तरह से काम आता है
औषधि में, मोट में, और
चमरौधे जुते में !
पर अब इस रेंड का क्या
अब तो गावों तक में
प्लास्टिक के माल जा पहुंचे
पर जो गावों से मरहूम होती
संस्कृति को हम शहर लेकर आये
तो वे लम्बरदार की तरह
भेष बदलकर यहाँ आ ही गए
और पुरानी अबूझ रंजिश
से यहाँ भी कहा
मैं सब कुछ जानता हूँ
कला कौशल कविता कहानी
सब कुछ मेरे हिसाब से ही
गढी जायेगी, पढ़ी जायेगी !
क्योंकि मैं सत्ता में हूँ।

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