डॉ लाल रत्नाकर
यहीं से होती थी मेरे दिन की शुरूआत,
यहीं आकर दम तोड़ती थी काली रात,
समय बदल रहा था और हम चलते गए
समय के साथ, मुफलिसी में सबके साथ
वो लोग भले थे जिन्होंने मेरे लिए किया
मैं भी वही कर रहा हूँ जो उन्होंने किया
लोग लूट रहे हैं दिन रात किसकी अस्मिता
अपनी बेच रहे हैं और किसकी खरीद कर
आज वे लोग बाज़ार बना रहे हैं किसके लिए
उत्पाद करने वाले बेरोजगारी से मर रहे हैं !
हम दुनिया को क्या बना रहे हैं किसके लिए
दुनिया का व्यापारी हमें निकम्मा बना रहा है
क्या हम यहीं से करें दिन की शुरुआत या
उसके लिए निक्कम्मेपन में दिन गुजार दें
यहीं से होती थी मेरे दिन की शुरूआत,
यहीं आकर दम तोड़ती थी काली रात,
समय बदल रहा था और हम चलते गए
समय के साथ, मुफलिसी में सबके साथ
वो लोग भले थे जिन्होंने मेरे लिए किया
मैं भी वही कर रहा हूँ जो उन्होंने किया
लोग लूट रहे हैं दिन रात किसकी अस्मिता
अपनी बेच रहे हैं और किसकी खरीद कर
आज वे लोग बाज़ार बना रहे हैं किसके लिए
उत्पाद करने वाले बेरोजगारी से मर रहे हैं !
हम दुनिया को क्या बना रहे हैं किसके लिए
दुनिया का व्यापारी हमें निकम्मा बना रहा है
क्या हम यहीं से करें दिन की शुरुआत या
उसके लिए निक्कम्मेपन में दिन गुजार दें
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