रविवार, 7 अक्तूबर 2018

चरवाहा

चरवाहा
@ डा.लाल रत्नाकर

चरवाहा कैसा और किसका उनका जिनके पेट भरे हैं
जिनके दिमाग़ में अपराध ने जडवत जगह बना रखी है
जिन्हें वास्तव में प्रकृति के सुकोमल तंतुवों की चाह है
घास भूसे से मेरा भी भण्डार भरा पड़ा है जिसकी चाभी,
उसने रख रखी है जिसने ज्ञान की ठेकेदारी ले रखी है।

ज्ञान के तंतुओं को मारकर हमने व्यापारी की ही तरह
जड़ता !
सजा रखा है तिजोरियों में ज्ञान को आज के युग में!
जितना चाहता हूँ उतना ही तो खोलता हूँ क्योंकि मैं
चरवाहा ही नहीं हूँ
सारे वह काम जानता हूँ जो जो मेरे बस के नहीं है
आजकी व्यवस्था में !
रंग ढंग दुष्ट पुष्ट भ्रान्ति भेद भाव कटुता में शान्ति के
संदेश की तरह ?

पर मैं चरवाहा क्यों नहीं हो सकता  हूँ ?
क्योंकि चरवाहा जानता है चोरी की आदतें, छिछोरी हरकतें
प्रकृति के तंतुओं पर उसका कभी भी अधिकार नहीं होता,
अधिकार होता है उसका और उसकी चापलूसी का धूर्तता का,
कपट और कुटिलता का जो हासिल किया जाता है सदियों से
इस मुल्क में हमेशा षड्यन्त्र से ।

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