शनिवार, 5 जून 2010

ये लातों की बात समझते है..

डॉ.लाल रत्नाकर








ये सारा संसार अनोखा है, धोखा है और चोखा है
फिर भी सब्र नहीं है इसको अपने कर्मों से
औरों को ये करम सिखाता है भरम सिखाता है
 नयी गीता और नया ज्ञान विज्ञान पढ़ाता है
सच्चों को बेईमान और बेईमानों को इन्सान बताता है
इसके कर्मों का लेखा जोखा कौन करेगा ?
सब के सब तो इसी तरह के पब में बैठे है
इनका लेखा बातों से करना बेमानी लगता है
 क्योंकि ये लातों की बात समझते है
लातों को भी गन्दा करना इंसानी फितरत है
इस फितरत के माहिर उसकी महफिल में
जो बैठे उपदेश करें और माखौल उड़ायें
लात पड़े तो नजर न आये
 पर कुत्तों की भौंक उन्हें भी बड़ी सुहानी लगती है
 ? ये संसद से लौटे है
 और खेल जुआरी का इनके संग जो खेल रहे हैं
 उनको इनकी दौलत भी बेमानी लगती है
अपने मौलिक कामों को  अपमान सा लगता है
पर पैसे के खातिर आना इज्जत सा लगता है
दया, कृपा के पात्र बिचारे सूबे के हैवान हमारे
 किस्से और कहानी कह कर
इज्जत की कुरबानी देकर हरकत एसी करते हैं
 वो क्या इंसानी लगता है ?
इनका लेखा बातों से करना बेमानी लगता है
क्योंकि ये वो है जो लातों की बात समझते है

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