शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

कोयले कि खान - बनी देह दिखाई नहीं देती !

डॉ.लाल रत्नाकर

सदियों से यही रीत



हमें रूलाती गई


बेटियां घर से गयीं


चैन उठाती गयीं


हमें लगता है कि


बेटी कि विदाई


एक राहत है


पर सही में कहें


बेटी का घर से जाना


सदियों के


नारी उत्पीडन का


माँ बाप को


या भाई बहना के


दिलों पे पहाड़ नुमा


पत्थर है


जिसे हम सहते हैं


आग जलती


पर दिखाई नहीं देती


कोयले कि खान


बनी देह दिखाई नहीं देती


जरा से सोचिये


दुनिया का बड़ा विकास हुआ


चाँद तारों पे आदमी


का आना जाना हुआ


पर आज तक


सदियों से चले आ रहे


रिवाज़ का 'कोई'


न शोध और न ही तरीका


ढूढा


बेटियां घर में रहें


उनका भी हक़ हो


और तो और ससुर - सास


कि जहमत से उन्हें


दहेज़ के "विकराल" कोप


से उनका


घुट घुट के जीना मरना


भी बचे उन्हें आग के हवाले


किये जाने कि


तड़पा तड़पा के मारे जाने का


रिवाज़ दौलत हो जहाँ


ऐसे में औरत होती बेटियां


की जहाँ की सोचो


सास बनके वही वो भी 'न'


करें का उपाय भी सोचो !


आदमी और औरत

हैं एक दूजे के लिए

यह ख्याल जब आता है

कई कबीलाई मिजाज़






भी कचोट जाता है


इतिहास के पन्ने पटे पड़े हैं


'बेटियों' की लूट की कथाओं से


वे भले ही 'राजकुमारियां' हों या


हो 'दासियाँ' ?


इनके खरीद बेच की


कीमत है असल में


'बेईमानी'


ईमान से कहें तो


'ये' सब रचा है आदमी ने


अपनी भूख के लिए


यदि कोई रिवाज़ जिसे


रचता है आदमी अपने खिलाफ


गलती से कभी !


'बलि' चढ़ती है स्त्री 'उसकी'


चलो एक रीत गढ़ें


बराबरी की


जहाँ बिटिया न चढ़े 'सूली' पे


आदमी की हैवानियात


हटे 'दहेज़' की


वसूली से


सदियों से यही रीत


हमें रूलाती गई


बेटियां घर से गयीं

चैन उठाती गयीं

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