गुरुवार, 2 मई 2013

इस मुल्क में और उस मुल्क में

सरबजीत की मौत 

डॉ . लाल रत्नाकर 

मर जाना आदमी का
अपनी मौत स्वाभाविक है
न जाने कितने मर जाते हैं
पर इस तरह से मारा जाना
आदमी का
कौम के नाम पर
धरम के नाम पर
बिना उसे सुने
मुल्क की सरहदों के पार
मेरे मुल्क के
रक्षकों की 'बेशरमी'
पर तरश आता है
रक्षा न कर पाने की
अपने मुल्क के
एक निवासी की
इससे तो बेहतर होता
की उन्हें फांसी पर ही लटका देते
जिस तरह से पिट पीट कर
मरा करके मारा
कितना अमानवीय है
'जाहिल' की हरकत
जलालत की जिंदगी
से मीली निजात
पर जब ख़तम हो गयी हो
बहन,पत्नी और 'बेटियों' की आस
शायद उन्हें अपने देश की
सरकार बचा लेगी
मानवाधिकार आयोग रक्षा करेगा
'वैश्वकीकरण' के अस्त्र
क्या न्यायिक प्रक्रिया में
'मनमोहन' ने स्वीकार नहीं किये हैं
आखिर हमारा तंत्र क्यों है
इतना लाचार।
ये वही देश है जहाँ दुनिया का
सबसे बड़ा आतंकी
कर रहा था ऐयाशी
और ये देश ले रहा था घूस
अमरीका से उसकी मदद के लिए
अब
और वक़्त नहीं है
निक्कम्मे नेताओं की
'बकवास' सुनने की
इन्हें हमारी नहीं
अपनी चिंता है बचे रहने की
भले ही 'कोई कुंच डाले'
न्याय के आने का
इंतज़ार करते इन्सान को
बेरहमी से।
ऐसे मुल्क जिसमें 'खेती होती है'
'आतंकवाद' की
निर्यात किये जाते हों
आतंकवादी
गोदामें हों आतंकवादियों की
भला 'सरबजीत' कैसे
बच पाते /बचाए जाते
इन 'बेटियों' से
बेटियां तो इस मुल्क में रोज़
लूट रही हैं
इस मुल्क के 'इन्तजामकारों से'
बस अब भरोसा
नहीं रहा भरोसे लायक
इस मुल्क में
और उस मुल्क में
नफ़रत और नफ़रत
बची है
बहुतायत में


कोई टिप्पणी नहीं: