शुक्रवार, 3 मई 2013

पिता की कमी




कितनी भयावह हो जाती है मौत
जिन्दगी भर के लिए पिता की कमी
कौन पूरा करेगा इन बेटियों की
ये भीड़/ये वादे/ ये मदद इमदाद
पूरा मुल्क उमड़ पड़े तो भी
क्या ‘पिता’ की जगह ले लेगा कोई !

एक सवाल और दहशत में डालता है
कि किसान की मौत से कभी इतनी
थर्राहट पैदा नहीं होती,
जिस तरह सरबजीत की मौत ने झकझोरा है,
रोज रोज मौते होंती हैं जिनकी गिनती
करने का वक्त नहीं होता श्मशानों पर
कब्रगाहों पर या नदी नालों पर।

दूसरे मुल्क में अकारण फंस जाने पर
जो सदमा लगता है कैसे नाप सकते हैं
बे वजह अपराधी बना दिए जाने पर
जिस यातना को सहा उसने उसे ‘बेटियां’
कैसे भुला पाएंगी, पत्नी पे क्या गुजरा है
बहन का हौसला है जिसने जो कुछ
किया है/और लड़ी है ।

कितने हार जाते हैं अपने ही मुल्क में
पड़ोसियों की कारस्तानियों से
आपसी नफरत की आह/आग से
पराए देश में नफरत की ज्वाला को
कैसे सहा होगा, मौत ने सब छुपा दिया
राजनेताओं की हमदर्दी ने उस गम को
इतना बढ़ा दिया है कि दिल फटता नहीं
पत्थर हो जाता है,
कि किस बात की कसम खाते हो
जब तुम्हें दिलाई जाती है शपथ


नफरत की चिंगारियां जब शोला बन जाती हैं
काश जिन्ना बने होते ‘प्रधानमंत्री’ और
मुल्क के टुकड़े न होते और यह संत्रास
झेलती अवाम इधर भी है और उधर भी
थोथे धर्मनिर्पेक्षता और धार्मिक विभाजन
का दंश इधर भी है और उधर भी।
कितने लोग हैं जिन्हें पता है इस मुल्क की
बागडोर उस सियासी रंग से रंगे खूंखार
हाथों में अब भी है और तब भी थी।

वसूलों, मूल्यों, इज्जत, नैतिकता और
आदर्श के इस मुल्क में
नफरत, हिकारत अब भी है जो तब भी थी।
उनको सम्भव है सब्र हो जाए
पर जो आगे होना है उसकी तैयारियां
जो अब भी हैं और तब भी थीं।
मुल्क आजाद है मगर कानून की किताबों में
ये कानून कैद रखे हैं इन्हें खोलने का
हक भी खरीदना पड़ता है,
दफ्तरों से लेकर ‘न्याय’ के प्रतिष्ठानों से
कौन करेगा रक्षा इस मुल्क की जिसमें
इतने खांचे हो जिन्हें तोड़ना अपराध है
हमारे संवैधानिक ढ़ाचे में।

ये सब याद आता है जब ‘‘सरबजीत’’ जैसे
फंस जाते हैं इधर भी और उधर भी
कितनी भयावह हो जाती है मौत
जिन्दगी भर के लिए पिता की कमी
कौन पूरा करेगा इन बेटियों की
ये भीड़/ये वादे/ ये मदद इमदाद
पूरा मुल्क उमड़ पड़े तो भी
क्या ‘पिता’ की जगह ले लेगा कोई !

डा.लाल रत्नाकर



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