शनिवार, 2 नवंबर 2013

दीवाली

दीवाली
(दीवाली पर बहुत गीत लिखे गए हैं पर मेरे लिखने का सन्दर्भ कुछ भिन्न है)
डॉ.लाल रत्नाकर

इस पर्व की प्रासंगिकता से सवाल करना
आसान नहीं है !
फिर भी जब विचार करता हूँ तो हर बार
ठिठक जाता हूँ !
क्योंकि उजाले की इक्षा में बड़े बड़े काले
कारनामें होते हैं !

नहीं ऐसा कहना अधार्मिक हो जाना है
तभी तो सच से !
बहुत दूर चले जाते हैं नियति की तरह
निति क्या करे !
हमारे अपने पराये उनके सब के सब
मतलब से भरे !
डिब्बे, उपहार, न जाने क्या क्या सब
उठाये फिरते है !

किसके कितने भारी भरकम हैं उपहार
क्या इस पर नज़र रखते हैं !
पता नहीं पर हमारे सामने वाले के घर
न जाने कितने !
सौगात के पैकेट हर साल आते रहते हैं
जैसे लोटे भर जल !
कुंए पर नहा एकादसी के दिन कोल्हू पर
चढ़ाया करते थे !

उसका मतलब आजतक समझ नहीं आया
फिर जल संरक्षण !
पानी बचाने के तख्तियां लगी देखि है हमने
पर पानी नहीं बचा !
अब तो गाँव में भी समर सबल लगाने लगे
जो पेड़ की जड़ों में !
जल भरने लगे अपने अपने खेतों के लिए
कुंएं कहाँ गए !

लगभग सब कुछ बदल गया दीये तक भी
पर अर्थ नहीं !
अब तो अन्धेरा बिखेरने वाले ज्यादा दीये
नहीं जलाते फिर!
खून जलाते हैं उनका जिन्हें इसमें रूचि नहीं
क्यों जलाते हैं !
उनका खून जिनमें उन्हें रूचि नहीं उनका वे
इसलिए नहीं !
इसलिए क्यों की खुन को वे खून नहीं समझते
अपना !

हमारे कुछ चाहने वाले कभी कभी ये एहसास
दिला जाते हैं !
जैसे निर्मला जी बता रही थीं की राजेन्द्र जी
दीपावली मनाते थे !
धन्य हैं वे जो आदमी के मरने के बाद भी
इस्तेमाल नहीं छोड़ते !
सामाँन की तरह घिसते जाते हैं बिना विचारे
जैसे विचार नहीं मरते ! 

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