शनिवार, 9 नवंबर 2013

हताशा

(दरअसल कविता करना और संबंधों को उससे दूर रखना ऐसा लगता है जैसे कोई अपराध है, मोहब्बत और शिरकत, जद्दोजहद, मान मनौवल या यथा-वथा सारी बातों को खारिज ही कर दिया जाए तो कविता क्या होगी, मेरी कोशिस यही होती है की परीलोक के सपने लिखने के बजाय यथार्थ के चुभते हुए पल,अंश और ऐसे पहलुओं को छुआ जाय जो हमें कमजोर करते हैं और उन्हें हम नज़र अंदाज़ करते रहते हैं जबकि हम उन्हें महशुस ज्यादा ही करते हैं .)  
यद्यपि मेरे मित्रों की समृद्ध परम्परा के अलावा पारदर्शी परम्परा है, बुराइयों को मुह्पर ही उल्लिखित करने की सहज स्थिति, साथ खड़े रहने और बुरा न करने देने का हमेशा कडा कवच भी पर जब कभी किसी ने इनसे इतर कुछ किया तो ;




हताशा 

जो न थी हमारी किस्मत, उसमें भी मिला हिस्सा
वो गालियों का था ही बदनामियों का किस्सा।

ये उन्होंने हमको उपहार में दिया था,
जिनको दिया था हमने हक मार करके उनका
समय,सामथ्र्य या मोहब्बत बांट करके उनका

सोहबत थी उसकी घटिया सब लोग कह रहे थे
मैं जानते हुए भी बर्दास्त कर रहा था

आखिर वो दोस्त मेरा मालिक समझ रहा था
नौकर की तरह वो आदेश कर रहा था

मित्रता में यद्यपि सब कुछ क्षम्य है, इसीलिए मैं भी
करता रहा था वो सब, उसके भी जो न करते।

इन्सान की शकल में कुत्ता भी शरीफ होगा,
कुत्ते से उसकी उपमा ‘कुत्ते’ का भी अपमान होगा.

-डा. लाल रत्नाकर

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