बुधवार, 19 नवंबर 2014

अविश्सनीय

न वक़्त की किताब हो तुम
न अँधेरे के चिराग हो तुम।

अंधी सत्ता के विधान के तुम
एक अंग हो मशीन के तुम

भले जमीर बेचते  हो रोज़
अपनी आन माँन के तुम।

इन्सान की शकल में हो जरूर
पर लगते तो हैवान हो तुम।

धरती के व्यापार ने तुम्हे
जागीर भले दी हो पर तुम

नियत के भले हो कैसे मान लें
कैसे मान लें तुम्हे।

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हम कितने कमजोर हैं, वे कितने बलवान हैं जो
झूठ बोलते हैं अँधेरे में, अकेले में, भीड़ में, और
उनके करीब हो जाते हैं जो जानते तो बहुत कुछ हैं
पर विश्वास कर लेते हैं उनका जो वास्तव में सच्चे नहीं हैं
मेरे साथ भी कई बार ऐसा होता है वे ठग कर चले जाते हैं हमें
जिनपर हम भरोसा किये होते हैं
और वे ही हमें अविश्सनीय बना रहे होते हैं।

                                         

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