शनिवार, 24 जनवरी 2015

क्षणिकाएँ

सोहबत * 
सब कुछ लुटा दिया वो अपना बना लिया है।
सोहबत का असर है या सोहरत का असर है।

महरबानियों से उसके जो राख हो रहा है।
सब व्यापारियों की ही कारस्तानियां तो हैं।

नफरत की आग में वो सबकुछ जला रहां है
आदमी की गैरत को वो पलीता लगा रहां हैं

कहते हैं फ़क़ीर है जरा लिबास तो देखिये। 
किसके करोड़ों को वो दिखावे में उड़ा रहा है। 

सारा मुल्क बेच देगा वो तो चिल्ला रहा है। 
गुजराती हूँ व्यापारी हूँ देखो यहाँ खड़ा हूँ।।  

(आजकल धड़ल्ले से क्षेत्रीयता जातियता और साम्प्रदायिकता का उल्लेख हो रहा है राजनेताओं धर्मावलम्बियों और तमाम शैक्षिक संस्थानों साहित्यकारों कलाकारों और उद्यमों में बिना किसी शर्म के अपना कूड़ा चुन रहे हैं और का सोना भी उनके लिए कूड़ा के सामान है-डॉ लाल रत्नाकर)

वो * 
वो आ रहा हैं
कोई सौगात लेकर
या
फिर से ठगने
बारात लेकर
या
मेरे उजडे हुये
मंजर को देखने
या
हम कितने
खुशहाल हैं
या
ये देखने
कि इस मुल्क में
एक चाय वाला
पीयम
कैसे मुल्क
चला रहा है
या
और कुछ
जांचने
परखने
जो आ रहा है
या ......


जिंदगी* 
जान भी ले लेती है जिन्दगी दिल की उमंग से
हमारे मजहब सोहबत इज्जत और मोहब्बत 

सब बेगाने हो जाते हैं वक्त के आने जाने के साथ
हमारे अभिमान के आगे भले सब बौने लगते हो !

पर हम लौट नहीं सकते अपने अभिमान के चलते 
टूट जाते हैं सियासत के दांव पेंच से जज्बे आखिर

अभी आप की सख्शियत की लौ जल तो रही है
उन्हें पता है की नियत भी बदली हुयी है उनकी 

और स्वाभिमान के आगे वे असहाय खडे दिखते भी हैं
यही कारण है कि वे जीत तो जाते है पर अंदर से नहीं

ओ जल रहे होते तो है पर जलते हुए दिखते नहीं
सामने नहीं आते बल्कि पीछे से हमलावर होते है

यहीं हम हार जाते है उनके दुष्कर्म के दोहरेपन से
अपराध और छल के कौशल से वो जीत तो जाते हैं।

कोई टिप्पणी नहीं: