रविवार, 4 जनवरी 2015

क्या इसी का नाम बुढ़ापा है !

चित्र ; डॉ लाल रत्नाकर /आयल आन कैनवास 

समय बीत रहा है 
जिंदगी की खूबियां और बुराइयां 
अस्पष्ट पर साफतौर पर दिखने लगी हैं। 
ऐसे में बहुतेरे लोग पास से दूर 
और हटते हुए दिख रहे हैं 
दौड़ करने की सामर्थ्य कम हो रही है
अपने युवा अवस्था में हम 
सोचते थे उन्हें देखकर की 
कि क्या वे अब काम के नहीं रहे 
उनकी बात, उनकी उपयोगिता 
और उनके अनुभव की अब 
जरुरत नहीं रह गयी है 
याद आती है 103 साल की 
बूढी हो गयी दादी की 
कि उनकी आज भी याद आती है 
जब कई महीनों बाद घर आने पर 
सारी घटनाएँ एक एक कर 
करीने से सुनाती और जोर देतीं 
खास बातों पर !
और ऐसा प्रतीत होता जैसे हम 
सुपर हिट फिल्म देख रहे है  
और यथार्थ में फिल्म के साथ 
जी रहे हों जिसमें उनके अनुभव का  
एक निदेशक का और ऐक्टर का 
समावेश था पर आज लगता है 
जिंदगी के सारे सॉफ्टवेयर आ गए हैं 
जिससे जिंदगी के अनुभव कूड़ेदान में 
चले गए हैं हमारे गढ़े हुए इस नए युग में 
इसीलिए नयी पीढ़ी को लगता है 
कि अब इनकी जरुरत नहीं है 
क्योंकि हमने उनके होम वर्क के लिए 
भी कई ट्यूटर और स्वयं माथा पच्ची किये थे 
और लल्ला को अपने दूध के बदले 
आर्टीफिशियल जूस  ही दिए थे 
यही फर्क है व्यावसायिक अब और तब  का 
 नए दौर और नगर का बदलते हुए शहर का 
जिनमें उम्र दराज़ लोग कम नज़र आने लगे हैं  
शायद इसी का नाम बुढ़ापा है  !

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