शनिवार, 7 मार्च 2015

होली तो हो ली


होली तो हो ली अब क्या होगा ?
काश मेरी भी होली जला दी होती !
सदियों के अपमानों की आग को !
बुझती राख होते देख लेती दुनिया !
फिर मेरे जीवन में इतना क्रूर पर्व !
दुबारा न आता होलिका की तरह !
हम कितने बेसुध हो जाते है वर्षों !
और जलती रहती हैं होलिकाए नित्य !
सर्वशक्तिमान मानवीय ईश्वरों के !
अवशाद में अहं में निरंकुशता के !
रंग भंग मदिरा मिष्ठान के स्वाद में !
भुला रहे हैं नामुराद होते एहसास को !
मेरी बहने, मुझे जलाने के लिए ही तो !
सज रही हैं, जिस त्यौहार के नाते !
गीत गा रही हैं उत्सवी मेरे जल जाने पे !
पता है उन्हें ये सब क्यों रास आ रहा है !
शायद वो डरी हैं पुरुष वर्चस्व से या !
डरा रही हैं आने वाली पीढ़ी को होली से !
समझ नहीं आया जब जब विचार किया !
होली के रंगों का हिसाब खर्च और चन्दन !
कहाँ से आता है कहाँ जाता है कूड़े में !
नाली के रास्ते गटर में और फिर कहाँ !
विलीन होते संस्कार, परम्परावादी सोच !
क्यों नहीं गढ़ते नए पर्व नए त्यौहार !
जिनमे किसी को जलाया न जा रहा हो !
रंग को बर्बाद भी न किया जा रहा हो ! 
उसे देश निर्माण में लगा दिया गया हो !
भित्तियों पर, पार्कों में, काले पड़े चेहरों पर !
गलियों में, मोहल्ले की खाली भितों पर !
धूल खाते चौराहों पर, गावों की चौपालों पे !
जिससे वर्ष भर लोगों को याद रहे त्यौहार !
और सड़कें, उनके डामर, बर्बाद न हों !
ये लकड़ियाँ उन गरीब के चूल्हों में भर दें !
कई दिनों उनकी आग की सस्ती मिठास !
हमने निराश किया है मित्रों को इसबार भी !
उन्हें उनके परम्परावादी बनावटी दिखावे से !
क्या हम यह संकल्प ले सकते हैं की !
निरक्षीर और विवेक से तोड़ेंगे गलत चलन को !
और सदियों से चली आ रही रूढ़ियों को !
गढ़ेंगे नयी न्यायोचित उत्सवी संस्क्रिति को !

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