बुधवार, 13 मई 2015

जरा सी धरती हिली...........

जरा सी धरती हिली, बड़ों बड़ों की रूह हिल गयी
जिनकी रूह हिली वो हिलाते रहते हैं निरंतर धरती
उनसे कौन पूछे की प्रकृति को अवसाद हेतु क्यों?
निमंत्रित कर रहे हो निरंतर अपने मान अभिमान में
क्या ऐसा और कुछ नहीं जो संपन्न करे धरती को
जिस अनुपात में प्रकृति ने जल थल और पहाड़
सृजित किये हैं अपनी बगीया के बेहतरी के लिये
उसे क्यों और क्यों हिला रहे हों नापाक इरादों से
जहाँ जंगल थे उन्हें उजाड़कर क्या क्या लगा रहे हो
इंसान को मारने के उद्योग धंधे ही तो खडे कर रहे हो
यहाँ का लौह यहाँ की ऊर्जा और ज्ञान क्या तुम्हे
अकूत नहीं लगते ! तुम घिनौने व्यापार से किसे
बिगाड़ रहे हो क्या अपनी धरती जिसे पूर्वजों ने
मा के रूप में पूजा था अब तू 'मदर्स डे' मना रहे हो
और धरती को खोखला कर रहे हो ! क्यों ?
तुम्हे मह्सुश तो नहीं हुयी धरती की धड़कन
मैंने महशुस किया है कल ही धरती की धड़कन
विश्वास करो मेरा रूह काँप गया और मैं तब से
अब तक ये नहीं समझ पा रहा हूँ की क्या मेरे
हिस्से की धरती में ही हलचल हुयी थी या उन सबकी
या उनके हिस्से की बे हिसाब धरती भी हिली थी
हज़ारों वो जो इस तूफां में बचा नहीं सके जीवन !
विश्वास करो मुझे लगा था यदि अगला झटका
न रुका तो हम दब जाएंगे उन अपने या उनके
बनाये हुए जर्जर मिटटी के महलों के मलबे के तले  !
जहाँ हम रोज़गार पाये हुए हैं या शुल्क देकर ज्ञान के लिए आये हैं
धरती के ऊपर खड़े खंडहरों के होने के पंडाल में !
ज्ञान तो पेड़ों के नीचे खुले में भी मिलता रहा है
पर कमाने के चक्कर में हमने तल पर तल बना रखे हैं
सभ्य होने के ढोंग में अपार्टमेंट बना रखे हैं !
जरा सी धरती हिली, बड़ों बड़ों की रूह हिल गयी
जिनकी हिली वो हिलाते रहते हैं निरंतर धरती !
कब तक हम बचे रहेंगे यह कहकर "भूकम्प" था !
जब वह रोज़ आएगा ! जब वह रोज़ आएगा !

-डॉ.लाल रत्नाकर


1 टिप्पणी:

mass ने कहा…

कमाल की रचना नमन आदरणीय