रचना का मर्म !
हृदयांगन में संजोये
तब उसका आनंद
कितनों को मिलता है
पर रचना जब !
पूरी नहीं होती या
पूरी होने से पहले ही
ग्रहण लग जाता है
नियम के कुत्सित
स्वाभाव और दम्भ का
तब रचना हमेशा के लिए
अधूरी रह जाती है
यही सीखते सीखते
उम्र निकल जाती है
तमाम इंसान के
रचनाकार के !
उसका भ्रम विश्वास
में बदल देता है
ज्ञान को या अज्ञान
के अभिमान को !
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