डॉ. लाल रत्नाकर
हर रचना के पीछे का अर्थ
कितना भी गूढ़ क्यों न हो
उसका अपना सौंदर्य ही तो है
उसकी अपनी विधा यानी रचना की
मगर कितनों को उसमें नहीं दीखता
वह महान अस्तित्व उस रचना के
गर्भित होते हुए रचनाकार के मन में
उसे नहीं दीखता जिसने तमाम
संकीर्णताएं पाल रखी है मन के
अंतस्तल और मस्तिश्क के प्रमुख हिस्से में
क्योंकि संकीर्णताएं विविध तरह की
हमलोगों के मध्य पलती रहती है
हमने उन्हें पाल रखा है सदियों से
धरम,जाति,क्षेत्र या लिंग के आधर पर
उन्हीं के चलते हम बटे हुए रहते हैं
उंच-नीच अगड़े पछड़े और शूद्र में
कब तक यह खांईं हम खोदते रहेंगे
क्या पराधीन होने तक या
विनाश के महा तांडव की प्रतीक्षा तक !
हर रचना के पीछे का अर्थ
कितना भी गूढ़ क्यों न हो
उसका अपना सौंदर्य ही तो है
उसकी अपनी विधा यानी रचना की
मगर कितनों को उसमें नहीं दीखता
वह महान अस्तित्व उस रचना के
गर्भित होते हुए रचनाकार के मन में
उसे नहीं दीखता जिसने तमाम
संकीर्णताएं पाल रखी है मन के
अंतस्तल और मस्तिश्क के प्रमुख हिस्से में
क्योंकि संकीर्णताएं विविध तरह की
हमलोगों के मध्य पलती रहती है
हमने उन्हें पाल रखा है सदियों से
धरम,जाति,क्षेत्र या लिंग के आधर पर
उन्हीं के चलते हम बटे हुए रहते हैं
उंच-नीच अगड़े पछड़े और शूद्र में
कब तक यह खांईं हम खोदते रहेंगे
क्या पराधीन होने तक या
विनाश के महा तांडव की प्रतीक्षा तक !
चित्र : डॉ लाल रत्नाकर |
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें