बुधवार, 15 जुलाई 2015

हमने उन्हें पाल रखा है



हमने उन्हें पाल रखा है सदियों से
धरम,जाति,क्षेत्र या लिंग के आधार पर
उन्हीं के चलते हम बटे हुए रहते हैं
उंच-नीच अगड़े पछड़े और शूद्र में
कब तक यह खांईं हम खोदते रहेंगे
गहरी चौड़ी फैले हुए क्षितिज तक
हर आदमी अपने अपने में फंसा है
उसे फुर्सत कहां वह झांके किसी के
बन उपवन व प्रकृति के खजाने में 
उनसे पूछो जो उजड़ रहे हैं नित नित 
जीवन गुजार रहे घने जंगलो से ।
बिहड़ों में, नदियों की तलहटी में
कथित विकास से दूर विरानों में
सामंतों के अत्याचार सहते ठिकानों में
मन्दिरों महलों राजमार्गों के नींव में 
दबे तुम्हारे श्रम के असंख्य कतरों में 
हम खुश हो ले रहे हैं सरकारी लूट में
वे सरकारें इसलिये बना रहे है जिससे
हम गफलत और गलतफहमी में जी सकें
अन्यथा कितनी बार अवाम की खुशहाली
के लिए सत्ताएं बदली गयी हैं कितनी बार
पर फिर फिर वही आ जाते हैं लेकर
अपना अपना घर बार ।।

-डॉ लाल रत्नाकर

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