शुक्रवार, 28 अगस्त 2015

कविता मार्ग है मन के निरंतर चलते रहने का !

कविता मार्ग है मन के निरंतर चलते रहने का
बन उपवन मन के भ्रमण और भ्रमित रहने का
जीवन के वे मूल्य जिन्हे हमने संजोया है मन में
उनके लिए राजमार्ग की तरह कविता की राह गढ़ने का
राजा हो शासक हो यदि वह कवि है तो फिर राजा नहीं
क्योंकि कविता मुझे आनंद की ओर ले जाती है
निर्वाण की तरफ नहीं !
सत्ता की चाह में कविता करना और कविता की चाह में कविता करना
अंतर के निरंतर भेद उपभेद मंतर और आराधना के जड़वत
समाज का निर्माण ही तो है !
कविता राजमार्ग से जब भी गुजरती है प्रलय का मार्ग प्रशस्त करती है
राजधर्म की अपनी सीमाएं हैं "रामराज्य" की अपनी अवधारणाएं भी
वे कविता के माध्यम से मंत्रमुग्ध कर लुटते हैं और वे संकीर्ण "धर्म" से
धर्म और अधर्म की व्याख्या कविता नहीं करती कविता प्रसन्न करती है
कामी क्रोधी को, निरंकुश को, धूर्त को, धर्माधिकारी को मानवता के खिलाफ !
संहार का सहारा देती ही भीड़ को जन को जन के खिलाफ !
उदहारण कितने भरे पड़े हैं सत्ता के अहंकार और कविता के मध्य !
निर्ममता से अहंकार को जगह देती हुयी कविता सुख देती है अमानवीयता को
जंगल में मंगल कर देती है कविता चारण के मुहँ से ?
मदांध कामी को जो सृष्टि के सृजन के नाम पर निरंतर नष्ट करता है
कविता से पेट नहीं भरता भूखे पेट की कविता जब निकलती है आह से !  
राजधर्म, धर्म की, भूख और गैर बराबरी के शब्द अलग हैं
जो अलग अलग मंचों से पढ़े जाते हैं, गद्य, पद्य, और कविता के रूप में !
भीड़ निर्माण की बजाय लूट के भाव संजोये अपने मन में अपने तरह से
कवि सम्मेलनों में, धार्मिक प्रवचनों में, राजनैतिक सम्भाषणों में
तलाश रही होती है अपनी कविता की पंक्तियाँ जो उसे विश्रान्ति दें !
चित्र : डॉ लाल रत्नाकर 
तभी तो !
कविता मार्ग है मन के निरंतर चलते रहने का
बन उपवन मन के भ्रमण और भ्रमित रहने का !

@डॉ लाल रत्नाकर
     

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