गुरुवार, 23 मार्च 2017

सरोकारों का दम्भ

डॉ.लाल रत्नाकर
(चित्र ; कुमार संतोष )

सरोकारों का दम्भ या दम्भ का सरोकार !
इतिहास गवाह है दम्भ ही सत्ता का प्राण है !
दम्भ विहीन सत्ता सत्ता नहीं सुशासन है !
यदि सत्ता में हैं तो दम्भ उतना ही जरुरी है,
जितना शरीर में प्राण वायु !

सत्ता कैसी वैसाखियों पर टंगी हुयी है !
पाँव हैं नहीं ! दम्भ पाँव की जगह ले लिए हैं !
दम्भ जाते ही पाव ओझल हो जाते हैं !
वैसाखियाँ ही पाँव की तरह नज़र आते हैं !
जीतनी दिख रही होती हैं !

कई कई बार गिड़गिड़ा रही होती हैं बैशाखियां  !
वैशाखियां सहारा लेने के लिए या देने के लिए !
पर पाव पकड़कर गिडगिङाने की वजह क्या है
कहीं अपने ही पाँव पर खड़े होने के लिए !
वो उतनी ही कामयाब हैं !

वैशाखियां जिसके लिए जरुरी हैं उन्हें वह नहीं मिलती !
उन्हें मिलती हैं जिनको उतनी जरुरी नहीं है ?
ऐसा क्यों होता है अगर हम वाज़िब फैसले ले पाते !
तो क्या वास्तविक वैसाखिया या वैशाखियों की वास्तविकता ?
अब नहीं रह गयी है ?                        

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