रास्ते
दरअसल रास्ते चलने के लिये होते है !
क्या सचमुच चलने वाले यह जानते तो है ।
पर वह यह नहीं जानते कि उनके कारण।
सत्य और नियति की राह कठिन हो जाती है !
जब वह राह छोड आगे निकलने की होड मे !
रास्ते बदल रहे होते हैं तो उन्हें घेर लिया जाता है ।
तब बहुत सारे सवाल उठ रहे होते हैं नियति के।
यही तो चाल होती है सदियों के रास्ते रोके जमात की।
इसे बदलने की ताक़त खाप जाती है ?
अपने को और अपनों के बदलने में !
जबकि सत्ता का स्वरुप कुछ और होता है।
संविधान बदलने में कहाँ चूक हो जाती है।
जहाँ संविधान रोकता है उन्हें मनमानी से।
बदल देते हैं वे बहुत सावधानी से चुपचाप ?
यही हो रहा है आजकल क्योंकि वह सो रहा है।
जिसे पकड़ना था उसका गिरेबान।
जो बदल रहा था हमारा संविधान !
दरअसल रास्ते चलने के लिये होते है !
क्या सचमुच चलने वाले यह जानते तो है ।
-डॉ.लाल रत्नाकर
दरअसल रास्ते चलने के लिये होते है !
क्या सचमुच चलने वाले यह जानते तो है ।
पर वह यह नहीं जानते कि उनके कारण।
सत्य और नियति की राह कठिन हो जाती है !
जब वह राह छोड आगे निकलने की होड मे !
रास्ते बदल रहे होते हैं तो उन्हें घेर लिया जाता है ।
तब बहुत सारे सवाल उठ रहे होते हैं नियति के।
यही तो चाल होती है सदियों के रास्ते रोके जमात की।
इसे बदलने की ताक़त खाप जाती है ?
अपने को और अपनों के बदलने में !
जबकि सत्ता का स्वरुप कुछ और होता है।
संविधान बदलने में कहाँ चूक हो जाती है।
जहाँ संविधान रोकता है उन्हें मनमानी से।
बदल देते हैं वे बहुत सावधानी से चुपचाप ?
यही हो रहा है आजकल क्योंकि वह सो रहा है।
जिसे पकड़ना था उसका गिरेबान।
जो बदल रहा था हमारा संविधान !
दरअसल रास्ते चलने के लिये होते है !
क्या सचमुच चलने वाले यह जानते तो है ।
-डॉ.लाल रत्नाकर
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