मंगलवार, 30 जून 2020

हुनर

मेरे ख्याल से हुनर प्रसाद नहीं है
हुनर हुनर है यह अवसाद नहीं है
निगाहें ढूंढ लेती है जहां भी है तू
कला कहकर बहाना ना किया कर
उपयोगी हैं जलाकर राख ना कर
हुनर मन में है जरा झांक कर देख
बहुत कुछ तेरे भीतर बाहर न देख
लकड़ी हो या पत्थर हो उसी में तो
रूप राग भाव का संसार भरा है
तराशने से उसका रूप निकला है
यही है अनुभव करना कराना है।
इसलिए बढई कभी रूकता नहीं
वह चीर देता है पीड़ा उसे क्या ?
वह तो कसाई है कबाड़ी थोड़े है
हुनर तो हुनर है व्यवसाय थोड़े है।
मेरे ख्याल से हुनर प्रसाद थोड़े है
हुनर हुनर है यह अवसाद थोड़े है।

डॉ लाल रत्नाकर

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