प्रतीकों के सहारे बहुत कुछ,
सदियों से सह रहा हूं।
बिना उफ किए हुए आज तक,
जब महात्मा को पढ़ रहा हूं।
तो आंखें खुल रही हैं।
जब हमारा समाज सो रहा है।
रात रात जग कर लिख रहा हूं।
काश इसको पढ़ने वाला!
कोई तो पैदा हुआ होता!
मिट्टी और गोबर से देवता को,
रंग बिरंगा गढ़ रहा हूं।
इंसान से ज्यादा पत्थर को
पूज रहा हूं, प्रसाद और दान,
हक उनका हो गया है।
जो हमें ठग रहा है।
हाथ जोड़कर नमन कर रहा है
पांव छूकर दक्षिणा दे रहा है।
मां बहन बेटियों की इज्जत।
इन पत्थरों के पूजने में।
संभालते हुए असमंजस में।
पूरी पीढ़ी का दंश झेल रहा है।
सदियों से सह रहा हूं।
बिना उफ किए हुए आज तक,
जब महात्मा को पढ़ रहा हूं।
तो आंखें खुल रही हैं।
जब हमारा समाज सो रहा है।
रात रात जग कर लिख रहा हूं।
काश इसको पढ़ने वाला!
कोई तो पैदा हुआ होता!
मिट्टी और गोबर से देवता को,
रंग बिरंगा गढ़ रहा हूं।
इंसान से ज्यादा पत्थर को
पूज रहा हूं, प्रसाद और दान,
हक उनका हो गया है।
जो हमें ठग रहा है।
हाथ जोड़कर नमन कर रहा है
पांव छूकर दक्षिणा दे रहा है।
मां बहन बेटियों की इज्जत।
इन पत्थरों के पूजने में।
संभालते हुए असमंजस में।
पूरी पीढ़ी का दंश झेल रहा है।
-डॉ लाल रत्नाकर
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