उसके आगे आगे चलकर
कितना पीछे हो जाते हैं।
राहत और उपकार के जुमले,
नफ़रत कितना भर जाते हैं।
सोहबत औ संगत उसकी,
अपनों से ही दूरी कितनी,
अंदर अंदर ही भर जाती है।
मर्यादाओं को तार तार कर
जिल्लत भरी जिंदगी देकर,
लड़ने भिड़ने की ताकत ?
अज्ञात कारणों से ही क्यों?
आतंकवाद से डर जाती है।
आपातकाल भयावह कितना
कहना कितना मुश्किल है।
यह अहसास हमारे भीतर भी,
दीमक के अस्तित्व सरीखा।
पोर पोर पर चढ़ जाता है।
-डॉ लाल रत्नाकर
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