शुक्रवार, 14 मई 2021

आखिर मुंह में कालिख पोतकर।



यह नफरती मंजर किसे दिखता !
छुपाकर योद्धा जैसे लिबास में !
धर्म के आडम्बर में धनुर्धर बनकर !
औतार या यमराज था, किसको पता ?
भक्तों का सिरमौर,बणिकों का सगा।
ठग रहा था, तब कौन था जग रहा !
सो गऐ थे, अच्छे दिनों की चाह में !
लूट के सारे नियम, था वह गढ़ रहा।
कानून भी क्यों तब मौन था ?
क्या सो गया था न्याय गहरी नींद में।
जाहिल था पर था सन्त के वेश में।
झूठ, जुमले थे उसके सगल,
उसके बगल में एक शैतान था।
भक्त कहकर हो गया भगवान था।
किसको पता इतना बड़ा बेईमान है।
गढ़ दिया नफरती गुंडे धर्म के पंडाल में।
माबलिचिंग का पुजारी और व्यभिचारी भला।
झूठ का पुतला और नफरत का पुजारी।
आज इसका सच उजागर हो गया है !
राष्ट्र पूरा भयावह आपदा में घिर गया है।
त्राहिमाम कर जनता मर रही है।
मनुस्मृति का उच्चारण वह कर रहा है।
घंटी घंटा और थाली ताली बजा रहा।
आपदा में अवसर का स्लोगन दे रहा है।
मौत के मंजर में यह देश है समा रहा।
मन की बात करता तो है पर छुपाकर ।
चाल तो वह चल रहा है जाल लेकर।
हर शहर भटक रहा है, पूरी दुनिया घूमकर।
यह नफरती मंजर किसे दिखता !
बंगाल से लौटा है अभी अभी !
आखिर मुंह में कालिख पोतकर।
- डॉ लाल रत्नाकर

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