बुधवार, 21 अगस्त 2013

मेरी बहना

संबंधों के अमर गाँठ की 
बहना याद बहुत आती हैं 

'राखी' के आगमन के पहले 
पाती उनकी आती थी .

कई बरस से याद बन गयीं 
अब उनकी वो पाती भी 

बहना हो तो ऐसी जिनकी 
याद नहीं जब जाती हो.

आदर्शों की हर परिभाषा 
थीं वो मेरी बहना.

डांट प्यार की मूरत थी वो 
श्रद्धा की थी वो सागर 

आज हमारे मध्य खड़े हैं 
रिश्तों के तो महासमर 

उनके वसूल में आदर था 
जो अपनों में होता है

घर घर की अब शकल याद है 
सीखे हुए दिनों की हमको

याद तुम्हारी आती है तब 
कष्ट भरे सपनों के संग भी 

आदर और निरादर के मध्य 
हमने देखे कितने आडम्बर 

जब भी आंसूं झरते है 
आश के हाथ सहारा होते 

बहना के संग चले गए है 
हिम्मत से लड़ने के छन

बहना अब मैं कैसे भूलूं
उस राखी रोली अक्षत को 

सुंदर धागों में बहना के 
निर्णय और अलंकृत मन को 

आज तुम्हारे सारे सपने 
संजो रहा हूँ अपने मन में 

अब मैं उनको व्यक्त करूंगा 
कोरे कागद, कैनवस के तन पे .

बहना तेरे आदर्शों व् सीखों पर 
चलने की कोशिस करता हूँ 

पर तू तो बहुत बड़ी थी 
अब भी मैं उतना ही छोटा हूँ .

इस राखी पर मेरा तुमको 
'श्रद्धानवत' मन याद कर रहा 

फिर तुम बनो बहन मेरी 
हर राह की दिशा 'दिगर्शक'

जिससे मैं पूरा कर पाऊं 
सीखे हुए आदर्शों के कौशल .
    

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