मंगलवार, 22 अक्तूबर 2013

कौन बताये इन्हें अंत में वोट नहीं पड़ते हैं ऐसे ...


तमाम तकादे उनको लेकर मुझसे होते रहते हैं,
जैसे मैं ही शासक हूँ और यह सल्तनत मेरी है .

आज तलक उपहास हमारे सत्ता के बाज़ारों में
राजनीति के खेल खाल के मज़े ले रहे उपहारों में

कल ही देखा भड़क रहे थे चौराहे पे डंडा लेकर
जैसे मैं ही अपराधी हूँ 'दंगे' और फसादों का .

जतन जुगत के किसी जोड़ से निकल सका था
किसी तरह मैं उस कुचक्र से फसते फसते .

हसते हसते सभी पूछते चौदह में क्या होना है
कौन बताये इन्हें अंत में वोट नहीं पड़ते हैं ऐसे

राज काज की बात कोई मजदूरों का काम नहीं
श्रम करके जीते जाओ अब राजनीती बात नहीं

उसके शासन में इसके शासन में कोई फर्क नहीं
भाई प्यादे वही पुराने है बस चटाई नई हुयी  है

पहले झंडा उसका था अब इसका लगा लिया
झंडे से ही भाव बढ़ गया तन मन तो वही रहा

कल तक उसके चमचे थे अब इसके आगे पीछे
ये सब मेरे युवा हैं इनसे कैसी उम्मीद और कहाँ

सता वत्ता शासन वासन सब कुछ यहाँ वहां
हलवाई का भोंदू लौंडा वरदी पहन लिया .

गाडी वाडी ऐसी उसकी राज पाल की कहाँ
जुते कुरते सदरी वदरी चमचे वमचे ऐसे ठाठ जहाँ

याद आ गए भाई साहब जो पहले सांसद बने
शिक्षा के अब कई संस्थान हैं  पहले बाबू भी न बने

यही हाल तो देखा देखि साहब भी लाइन में खड़े
अभी रिटायर हुए नहीं हैं पर दल दल के फेर करे

राजनीती में ऐसा आकर्षण फिर क्यों कोई काम करें
कौन बताये इन्हें अंत में वोट नहीं पड़ते हैं ऐसे ...

क्रमशः ........................
(डॉ.लाल रत्नाकर)

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