रविवार, 16 मार्च 2014

अगर ये बुत होते तो

डॉ लाल रत्नाकर 

अगर ये बुत होते तो
न हाथ, हाथी है न सायकिल है
आज मेरे मन में केवल सत्ता है
अगर आ जाएँ ये दोनों तो
मन कि मुरादें हो ही जाएंगी पूरी
मगर अफ़सोस ही होगा
अवाम को इनसे क्योंकि
सभी जागे हुए हैं, पर अभी भी
सो रहे हैं ये सब !
नशा इनका 'भंग' का नहीं
सावर्णि सोच के 'रंग' का है
सवर्णों कि नक़ल में ये
सगल सब कर रहे हैं !
अगर ये बुत होते तो
इन्हे मैं तोड़ ही देता मगर
ये हाड और मांस के पुतले
जिन्हे चील और कौवे
नोच रहे हैं , यहाँ भी सब्र
करके वे किनारे ही खड़े हैं
जो इनकी जागीर कि तरह
हर बार बिकते हैं, कभी इस
और कभी उस वॉर 'वोटर' बनके
रंगों का जहर इनको कभी
बेधा नहीं होगा !
इन्हे रंगों का मिज़ाज़ बेज़ा नहीं लगता
ये तो नशे में हैं 'गरीबों' की आह से
इनका रिस्ता वोट का है केवल !
इनकी जातियां पूछोगे तो ये नाराज़ होंगे ही
क्योंकि जातियां तो केवल वोट देती हैं
ख़ुशी के सारे मशाले वो देते हैं
जो इनसे नोट लेते हैं
'बहुत' ही कम नज़राना देते हैं
उसी में ये कभी तो जेल जाते हैं
और उनको अनर्थ करने का समर्थन के लिए
हर बात पर कीमत लेके साथ देते हैं
गरीबी को अनाडी  जैसे ये झेल जाते हैं।
अमीरों के लिए जो सारा ये खेल करते हैं।

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