मन के फरेबों से
-डॉ. लाल रत्नाकर
-डॉ. लाल रत्नाकर
मन के फरेबों से
जीवन के सागर मे गोते लगा रहे हैं
हम तो हम हैं
वे तो मगरमक्ष हैँ
सागर में नहीं
दरिया में सागर भर रहे हैं
मन के फरेबों से
पागल बना रहे हैं
सदियों कि दासता झेलने वाले
अपने पैरों पर
मरहम लगा रहे हैं
इनको कौन बताये बेरियां
तब बेरियां नहीं होती
जब अवाम साथ होती है
पर ये उस अवाम को
गले लगा रहे हैं
जो इनके लिये बेरियां बना रहे हैं
इस कदर ये डूबे हुये हैं
चुल्लू भर पानी मे
इनके साथ हम लोग शरमा रहे हैं
इन्हे लगता है ये जन्नत बना रहे हैं।
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