मंगलवार, 22 जुलाई 2014

मैंने देखा है इसे गढ़ते हुए




यह महज एक पत्थर का टुकड़ा

आमजन के लिए किसी किनारे
बे वजह टिका देने के सिवा और
कुछ भी तो नहीं था .


पर एक रचनाकार की नजर ने
ढ़ूढ़ लिया इसके भीतर का यह रूप
जो सदियों से छुपा हुआ था परम्परा
के घूंघट में मेहनतकश जातियों के
श्रम करते गांव मे .

सभ्यता दरअसल असभ्यता से इतनी
भयभीत क्यों रहती है ?
मैंने देखा है इसे गढ़ते हुए
कामचोर जातियां समझती हैं ये श्रम
तो निरर्थक है इसका मूल्य तो मुझे
नहीं मिलेगा क्योंकि इसमें जितना
श्रम है उसके एवज में मूल्य बहुत ही
कम है ?

मेरे मित्रों मेरी बेवकूफियां ही सही
ये कृतियां आज ही नहीं हमेशा हमें


सन्देश देंगी श्रम और रचनाकर्म
की कि समाज का स्वरूप लूट से ही
नहीं मेहनत से संवरता है।

आईए मेहनत से संवारे मुल्क को
'इमारत’ पटेल की हो या गुजरी की
दोनों गढ़ी गयीं हैं पौरूष से अन्यथा
ये बुत बेजान हो जांएंगे प्रसाद और
अपराध के जल से, फल से.

-डा. लाल रत्नाकर

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