शनिवार, 6 सितंबर 2014

जिन्हें हम नहीं चाहते की वो मेरे दोस्त बनें !

डॉ लाल रत्नाकर 



जिन्हें  हम नहीं चाहते की वो मेरे दोस्त बनें
कैसे कैसे वो आ ही जाते हैं सीढियाँ लगा के

मिलना उनसे अब मुश्किल हो जाता है जब वे
टकरा जाते हैं काम के धरातल और स्थल पर

पर उन्हें शर्म तो होती है पर उसे छुपाएँ कैसे
समझ नहीं आता इस स्वाभाव से बचाएं कैसे

समय के मरहम भले ही घाव भर दें वाजिब
खयालात में जो है उसे मन से दबाएं कैसे

बात इतनी ही हो अगर की उन्हें दुश्मनी थी
तो निकालते वो मेरे बहादुर दुश्मन बनकर

ओछे आचरण के कुल का अनुकरण करके
ईमान की कसम देते हैं वे जब थक हार के

बताएं आप उनके इस कदम का क्या करें
कोशिशें उनकी भले तब तो नाकाम हुयी हों

भरोसा करना उन्ही के शास्त्रों ने रोका उनका
अगर ग़ाफ़िल हुए अब आपको तो डूबना ही है

सियासत की रियासत में उनकी हाज़िरी होती
नतीज़न नाम सबका उसने किया होगा काला

जब  ज्यादा लोग काले हैं उजाला बांटने वाले
भविष्य किसका बदलेगें किसे उम्मीद है इनसे

बताएं आप इनसे बचकर अब हम कहाँ जाएँ
जिन्हें  हम नहीं चाहते की वो मेरे दोस्त बनें !

कैसे कैसे वो आ ही जाते हैं सीढियाँ लगा के
जिन्हें  हम नहीं चाहते की वो मेरे दोस्त बनें !

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