रविवार, 26 अप्रैल 2015

तबाही

प्रक्रिया तबाही की प्रक्रीति के हिस्से में नहीं है
हमारे लोभ लाभ का हिसाब कैसे और कहाँ है

सब्र का बोझ उठाने की कला पहले से ही तो है
मगर आज आचार और व्यवहार संकोच भरा है

न सम्मान की सीमा है न अपमान की फ़ितरत
शहरी तो है वे मगर पशुवत व्यवहार है जिनका

धरती में भरपूर भरण है अन्नादि की वह भरणी
विक्रित किया है उसके इस रूप का हम सबने ।

आओ सँवारे रूप को पलकों के उनके शूल को
देह के प्रतिघात को आपात के हर संताप को ।












सबने ही उसके हिम्मत व इस्मत को लाचार किया है
कहना यही सही है कि अत्याचार व व्यभिचार किया है

उसी संकोच ने भीतर से अब जो विस्फोट किया है
उसी प्रतिकार को हम सबने मिलकर तबाही कहा है।


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