सोमवार, 28 दिसंबर 2015

क्या मैं कहीं से भी नहीं हूँ !

मेरे इस वाकये को गीत मत कहना
यह तो मेरे ह्रदय के अंतर स्पंदन से
निकल आया है मेरे भावुक हो जाने से
अन्यथा अपनी पीड़ा छुपाये मैं भी
बयां कर रहा होता उनके सौन्दर्य
का बनावटी स्वरुप और काले के
गोरे गोरे रूप के लच्छेदार शब्द से
प्रवंचना पाले हुए अंतर की धता से
और वो भी बाग़ बाग़ होकर मेरे करीब
खड़े होते मनहूस उदासी बिखेरे हुए
लेकिन यह सब मुझसे नहीं हो सका
अंतर्मन से झाकता हुआ सच को
अंगीक्रीत किया था जिस सत्य को
वही जो मुझे भाता गया अंतर से
पर मुझे क्या पता था मैं गलत था
बहुत गलत था ! मैंने समय वर्बाद किया
यह वक़्त तो लूट का था और मैं लुटाता रहा
हुनर रचना का ईमान बेफिक्र !
यही कारण है वे लूटते भी रहे और लूट के
हुनर भी गढ़ते रहे दिन रात !
मुझे लगता है अब मैं चुक गया हूँ
उन्हें लगता है मैं लूट चुका हूँ क्योंकि
जो प्रव्रित्ति है आज की मैं उसके योग्य
क्या मैं कहीं से भी नहीं हूँ ! 

@डॉ लाल रत्नाकर


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