सोमवार, 4 जनवरी 2016

जो कविता नहीं है।

(समाजवादी अवधारणा पर बिचार आते हुये इमानदारी और चरित्र बहुत ही मज़बूत पहलू लगते हैं, राष्ट्र की एकता अखंडता और सम्प्रभुता के लिये तमाम लोग लूट जायें और कुछ मालामाल हो जायें, यह कहॉ का सच है, हमने जब समझ की आँख खोली थी तब से मन में एक ही बात दिखती थी छुआछूत ग़ैर बराबरी, इनके पीछे धार्मिक पाखंड प्रमुख था, यही से अन्याय की नींव पड़ती दिखती थी, हमारे लोग अन्धाधुन्ध धर्मांन्धता के शिकार थे, उसी में कोई बड़ा हो जाता कोई छोटा मेरा विद्रोहीमन कभी उस धार्मिक सत्ता को स्वीकार नहीं किया, जहॉ ग़ैर बराबरी की बू आती, साथ के बच्चों से जब भी मारपीट हुयी वहॉ हार जीत तो अलग किस जाति से जीत या हार हुई है, मुस्लिम के बारे में तो अलग तरह के ही ख़यालात थे, पर जब व्यवहारिक जीवन में आया तो अलग तरह का जातिवाद देखा, सरकारी संस्थानों में, शिक्षा के संस्थानों में पर जहॉ भी कोई ईमानदार अफ़सर,शिक्षक, मित्र मिला आजतक प्रगाढ़ता है, जबकि बहुतेरे स्वजातीय बन्धु - बान्धव इसलिये मैं या वे हमें रास नहीं आते कि हम उनके साथ बेईमानी में खडे नहीं होते। जबकि अन्याय अनाचार उन जातियों में इतना है कि आज तक वे अपने उत्थान के लिये पूरे मुल्क को गर्त में धकेल दिये हैं।
सच कहते हुये अब घबराहट नहीं होती क्योंकि मैंने वे सारे रास्ते बन्द कर लिये हैं जहॉ से इस तरह की उम्मीद बनती दिखती थी, उन समाजवादियों जिनसे लगता था कि ये एकदिन भ्रष्टाचार का ख़ात्मा करेंगे निराशा हुई है, दुनिया भर में पूँजीवादी ताक़तें जर्जर हुई हैं, धार्मिक कट्टरता को चुनौती मिली है पर हम नये तरह के समाजवाद के शिकार हुये हैं, जिसे नीचे की पंक्तियों में व्यक्त करने की कोशिश किया हूँ । )
----------
कल तक जो थे माटी के बन्दे आज वही सम्राट हुये है !
सत्तामद में चूर हुये हैं सच्चाई से दूर हुये हैं ये कैसे सम्राट हुये हैं?
इनके चलते चली गयी है लड़ने भिड़ने की ताक़त ?
डर लगता है कहीं यही घोषित न कर दें हम सब आतंकी है।
जब जब सत् ने हिम्मत की होगी इनको सही बताने की ?
तब तब उसको ही रौंदा है सत्ता के अभिमानों से !
जब जब सत्ता में ये आते हैं जनता के अरमानों से
न जाने कैसे ये मिल जाते है सत्ता के शैतानों से ?
जब से ये जमे हुये हैं सत्ता की चारदीवारी में,
चोरों की भागीदारी से,हलाकान है, परेशान है,
जनता अब कैसे शैतानों की भागीदारी से ।
सोहरत इनकी बढ़ी हुई है चोरों की चारदीवारी में !
मिलते जुलते रहते जब हमसे कभी कभार ठिकानों में ।
हम इनको बतलाते रहते मुँहफट लूट और बेईमानी को !
इनको घेर दिया है काले काले रखवाली के शैतानों से।
हमसे इनको डर लगता है, कह न दे उनके हाल कहीं।
जनता चली गई है अब अपने आप ठिकानों पे ।
बाहर निकलो नेताजी अब वक़्त गुज़रने वाला है?
सतही लोगों ने लगा लिया है दौलत के भंडार बहुत।
क्योंकि अब डर लगता है, सम्राट बहुत ही निष्ठुर है ?
धरतीपुत्र तो धरे रह गये, सत्ता का सब रंग सह गये !
गहरे तक ख़ूब छक लिये भाई बन्दी के मयखाने में!
गॉव गिराँव सब वहीं रह गये अपना घर सजाने में।
सबके लाल बेहाल हो गये अपना परिवार  बढ़ाने में ?
सत्ता का रस रहा अधूरा अपनी औक़ात बचाने में।
कल तक जो थे माटी के बन्दे आज वही सम्राट हुये है !
सत्तामद में चूर हुये हैं सच्चाई से दूर हुये हैं ये कैसे सम्राट हुये हैं?
---------------
डा.लाल रत्नाकर



कोई टिप्पणी नहीं: