पिछले दिनों इस कदर 'आतंक' से
गुजरता रहा है यह देश,
जाति, विद्यार्थी और मीडिया भी,
आततायियों के कहर से
सत्ता के लोग यह प्रचारित करते रहे,
आतंकवाद भीतर आ गया है
तब से जब से वे/ये सत्ता में आये हैं!
जनता उम्मीद में अच्छे दिनों के !
महगी दाल, रेल, बिजली, पानी और
'मन की बात' पर सब्र किये
इतजार कर थक गयी है,
बीमार बजट से उम्मीद करना
उसका भुलावा ठगावा जानती है वह ।
आतंक ने उसे डरा तो नहीं पाया,
पर वह भले न डरे पर डर तो लगता ही है।
सत्ता की नियति से, सत्ता की नीतियों से।
जब जब वह जन विरोधी खेल करता है।
अपनों के लिए बे-मेल करता है
देश के संसाधनों का खेल करता है
पर वह देशद्रोही नहीं होता !
जबकि उसपर नज़र रखने वाले
उसके काले कारनामों के खिलाफ
आवाज़ उठाने वाले देशद्रोही
बना दिए जाने के लिए जेलों में
ठूस दिए जाते हैं !
डा. लाल रत्नाकर
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