बुधवार, 9 मार्च 2016

जातिवाद की अवधारणा

हमारी और आपकी !
अवधारणा ज़रूरी नहीं एक हो !
बहुत कुछ बदल गया है !
आपको लगता होगा !
हमें कुछ अलग लगता है !
जातियॉ टूट रही हैं,
सम्बन्ध बन रहे हैं कुजातियों के!
स्वजातीयता की अवधारणा हमारी है,
जातियता की बिमारी उनकी  है,
उन्होंने मानसिंह के रूप में या
सत्ता के क़रीब बने रहने के लिये
तुर्कों को वरण करने के लिये !
जोधाबाई तो इतिहास की धरोहर हैं !
ययाति से अम्बेडकर तक की कथा में 
हमारे ज़ेहन में बनी है स्मृति की तरह।
आधुनिक और समकालीन दौर में
बेटीबेचवा बना हुआ है भिखारी का पात्र !
सत्ता न होती तो क्या यह सब कर पाते !
जातियता के चुभते मर्म को सह पाते ?
दलाल की कारगुज़ारियों से हैं सभी वाक़िफ़
समाज की कारगुज़ारियों से भी होते वाक़िफ़
ज़रूरी नहीं हमारी अवधारणा ठीक ही हो,
राज्य की शक्ति से भले ही मजबूत हो !
नहीं तो यह बदलाव और  समाज में इज़्ज़त
हमें भी समझ आती है, अवधारणा समाज की
जो इतनी आसानी से बदल नहीं जाती !
अन्यथा इनके समाजवाद का सुधारवाद भी 
उस समाज से सम्बन्ध तोड़ता नज़र न आता,
जिसकी ताक़त से चकाचौंध है राजसत्ता  !
बेटियाँ सबकी हैं ये सब इतने उदार कहॉं !
रोटी और बेटी का रिश्ता होता है कैसा ?
जब समाज ही है अन्धा ! 
कुंये म न जाये तो जाये कहॉ !
आपकी अवधारणा ज़रूरी है,
मेरा ख्यालात भले ही गैर जरुरी है !
हमारी अवधारणा आपसे मेल खाये या न खाये !
जिस समाज में हम रहते हैं !
वह भले ही इनसे मेल खाये या न खाये ?
पर यह तो उतना ही सच हैं !
जितना बाबा साहब के साथ था !
हमारी और आपकी !
अवधारणा ज़रूरी नहीं एक हो !

-डॉ.लाल रत्नाकर
चित्र ; डॉ लाल रत्नाकर (संग्रह में ; सी सी एम बी हैदराबाद)

(हम आये दिन जाति और स्त्री के सवाल के प्रति बहुतेरे प्रवचन लोग करते रहते हैं, जातिवादी कहे जाने वाले लोग जाति के नाम पर वोट लेते हैं, पर बहू और जातियों से लेते हैं, हम सुधर रहे हैं राजनितिज्ञ हो रहें मेरी बेटियॉं लेने को समाज का वह वर्ग जो सत्ता में है कभी उदार नहीं हुआ यानि लड़कियों को हमने समाजवादी नहीं होने दिया पर बहुयें समाजवादी लायेंगे, जाति तोड़ो लोहिया का ही नारा था नारे तो और थे लोहिया के ! हमने अपने भावों को यहॉ व्यक्त किया है सम्भव है आपको रास न आये पर हमें यह आज़ादी है ?)

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