कोई कविता में इस तरह यथार्थ का वर्णन करे तो उसे किस तरह का काव्य कहेंगे ?
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यथार्थ
"हरामखोर, धूर्त, कामचोर, निकम्मे !
दुराचारी, पाखण्डी, भ्रष्ट, लालची, नीच !
तुम्हें अपनी औक़ात नहीं पता,
जाति पर गुमान है तुम्हें ?
तुम जातिवाद करते हो और
दूसरों को जातिवादी कहते हो!
तुम्हारी जाति की पहचान पता है तुम्हें !
देशद्रोही, ग़द्दार, शोषकों के मुखिया !
ज्ञान का नाटक करते हो !
लूट, खसोट, करके मालदार बनते हो,
मेहनत से डरते हो, हमें अकल दिखाते हो।
तुमने देश का नाश कर डाला,
हमारी दी हुई सत्ता से डराते हो।"
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(यदि यह काव्य की श्रेणी में ले लिया जाय तो हज़ारों कवियों, साहित्यकर्मियों की जगह बदल जायेगी ! जहॉ यह सच आया तब विकास के नाटक, असली आरक्षण, संरक्षण, आधिपत्य आदि के लिये अर्थ के सवाल पर बहस आरम्भ होगी।)
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यथार्थ
"हरामखोर, धूर्त, कामचोर, निकम्मे !
दुराचारी, पाखण्डी, भ्रष्ट, लालची, नीच !
तुम्हें अपनी औक़ात नहीं पता,
जाति पर गुमान है तुम्हें ?
तुम जातिवाद करते हो और
दूसरों को जातिवादी कहते हो!
तुम्हारी जाति की पहचान पता है तुम्हें !
देशद्रोही, ग़द्दार, शोषकों के मुखिया !
ज्ञान का नाटक करते हो !
लूट, खसोट, करके मालदार बनते हो,
मेहनत से डरते हो, हमें अकल दिखाते हो।
तुमने देश का नाश कर डाला,
हमारी दी हुई सत्ता से डराते हो।"
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(यदि यह काव्य की श्रेणी में ले लिया जाय तो हज़ारों कवियों, साहित्यकर्मियों की जगह बदल जायेगी ! जहॉ यह सच आया तब विकास के नाटक, असली आरक्षण, संरक्षण, आधिपत्य आदि के लिये अर्थ के सवाल पर बहस आरम्भ होगी।)
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