धर्म की संवेदनशीलता को देखते हुए
हमें अपना एक धर्म गढ़ना चाहिए
जिसकी सारी मीमांसा का हक़
हमारा होना चाहिए ?
हमें अपना एक धर्म
और धर्मगुरु बनाना है
लेकिन यह धर्म
उस धर्म की तरह न हो
जो धर्म आपस में नफ़रत
फैलाने का सन्देश देता है
और भेदभाव करता है !
अब यह समझ में नहीं आ रहा
जब हमारे धर्म में यह सब
खूबियां आजाएंगी तब
हम उस धर्म का विरोध कैसे करेंगे
जो आमतौर पर आमजन को
आपस में लड़ाता है !
आइये हम एक
आमजन की संसद बुलाते हैं
जिसमें नए धर्म का
मशविरा लाते हैं ?
धर्म की शालीनता का
बंधुत्व और जाती विहीनता का
पाखण्ड से परे
नैतिकता का पोषक
शोषकों के विनाश
और समता समानता के
पैगाम का !
डॉ. लाल रत्नाकर
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