मंगलवार, 24 अप्रैल 2018

चाचा के खलिहान जल गए

डॉ.लाल रत्नाकर

इस गाँव की गलियों ने ही
हमको हसना रोना और दौड़ना
बचपन से हमको है सिखलाया .
पर छुपना यहाँ बड़ा मुश्किल था

वहां सभी थे घर गाँव के अपने
पर नहीं कोई पराया था
था या यह तब समझ नहीं थी
सबका घर अपना ही घर था

था वहां  नहीं कोई पराया
चौपालों की धूम चौकड़ी
खलिहानों की लूका छुपी
पर हमने उनमे खेल खेल में

कभी न आग लगाया उसमें  .
खबर छपी थी अखबारों में
चाचा के खलिहान जल गए
आशा नहीं थी जिनसे उनको

उनसे ही शायद भूल हुयी
पर सब्र बड़ा था तब भी उनमे
जब पता चला भतीजों ने ही
अपना करम बिगाड़ा !

इस गाँव की गलियों ने ही
हमको हसना रोना और दौड़ना
बचपन से हमको है सिखलाया .
पर छुपना यहाँ बड़ा मुश्किल था

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