शनिवार, 24 नवंबर 2018

हम आैर हमारा समाज ?


हमने जिससे बेइंतहा मुहब्बत की है ?
सदियों से और जन्म जन्मान्तर से !
पर क्या वह मुहब्बत कहीं बाक़ी है ?
रिस्तों में भावनाओं में या हक़ हूकुक में ?

नहीं मेरे स्वार्थ ने सब हड़प लिया है !
अपने पराये के रिस्तों के हक़ और !
नियति के किये कराये क़ानूनी दॉव पेच !
सब डरे हुये हैं तुम्हारे डरावने डर से !

कभी तो सोचते इंसान की नियति से !
उपकार की नियति या विनाश की मंशा !
सदाचार करना और केवल दिखाना 
दोनों ख़तरनाक खेल है अंतर्मन का !

चलो अब ज़रा त्याग की बात करें !
उसकी नियति का पर्दाफ़ाश का एहसास करें !
हवा बदल गयी है यहॉ की आज़ादी की !
हर शख़्स यही समझता है वही तो मालिक है !

डॉ.लाल रत्नाकर 

कोई टिप्पणी नहीं: