जहर उगलती दिवाली से मोह पाल बैठे हैं जो
मानवता के लिए जहर बनाने बेचने बैठे हैं वो
आओ फिर से लौट चलें हम घरवाली हरियाली में
मोह त्याग दें दौलत की खाली खाली सपनों की !
नहीं सही है झूठ-मूठ की नकली जो दिवाली है।
कौन आ गया सत्य समेटे जनमानस के खातिर !
शातिर चोरों की चौकीदारी में कैसी ये दिवाली है
पैसे पैसे को तरस रहा है मानव जो बैठा खाली है
तानाशाही के क्रूर काल की ये कैसी दिवाली है।
जनता भी अब भक्तिभाव में बनी हुयी तो अधी है।
नहीं दिवाली सही दिवाला जब आँखों के आगे है
भक्ति नहीं यह लूट काल है दिवाली भी काली है।
-डॉ. लाल रत्नाकर
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